सरकार जी! क्या ये अफसर अंग्रेजी राज के तानाशाह हैं?

samart-study-group-for-web-advt-hoshiarpur-समर्थ अधिकारी का समय कीमती और जनता ‘वेहली’- आज भी अधिकारियों को मिलने के लिए जनता को करना पड़ता है घंटों इंतजार- ‘सेवा’ शब्द के सहारे सरकारी सेवाओं में आने वाले अधिकतर अधिकारी सेवा में आते ही करने लगते हैं जनता की ‘सेवा’- समर्थ अधिकारी कार्यालय पहुंचती जनता की बात सुनने की बजाए बैठकों और अन्य कार्यों में अधिक रहते हैं ‘बिजी’- आज भी कायम है अंग्रेजों के जमाने का स्टेटस- सरकार, प्रशासन और जनता के बीच कड़ी का काम करने वाले मीडिया कर्मियों को भी मिलना मुनासिब नहीं समझते कई अधिकारी-
Editor’s Opinion: Snadeep Dogra 
देश में एक समय था जब अंग्रेजों की हकूमत थी और उस समय के प्रशासनिक अधिकारियों के समक्ष अपनी फरियाद लेकर पहुंचने वालों के साथ कैसा सलूक किया जाता था, इस बात से हम सभी लगभग वाकिफ हैं तथा कई ऐसे शूरवीर हैं, जिन्होंने इसे अपने शरीर पर भोगा भी है। अंग्रेजों को देश से भगाने वाले ऐसे शूरवीरों को हम स्वतंत्रता सैनानी के नाम से जानते हैं तथा उनकी गाथाओं को जीवन में धारण करके देश के प्रति समर्पण भाव जगाने का प्रयास किया जा रहा है। शूरवीरों की शहादत और देश पर मर मिटने वाले हर उस देश वासी की बदौलत आज हम आजाद भारत में सांस ले रहे हैं। परन्तु शायद हम एक बात नहीं भूले और वह है गुलामी। पहले हम अंग्रेज अफसरों की गुलामी करते थे और आज हम अपने ही अफसरों की गुलामी करने को मजबूर हो रहे हैं। देश आजाद हुआ और विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र बनकर उभरा। लोकतंत्र यानि ‘लोगों का तंत्र’। मगर, मुझे हैरानी होती है कि जब अपने ही देश में जब हम किसी सरकारी कार्यालय में किसी समर्थ अधिकारी से मिलने जाते हैं तो वहां पहुंचते ही अंग्रेजी हकूमत का दृश्य चेहरे के समक्ष आ जाता है, जैसा कि डाक्यूमैंट्रीज व फिल्मों में दिखाया जाता था कि अधिकारी से मिलने से पहले लोगों को उनके पयादों के सवाल जवाबों से गुजरने के साथ-साथ देर-देर तक इंतजार करने को मजबूर होना पड़ता था, अधिकारी के समक्ष खड़े होकर खुलकर बात नहीं कर सकते थे। आज भी ऐसा ही है, फर्क बस इतना है कि पहले अधिकारी अंग्रेजों के थे और आज लोकतंत्र में ‘सेवा’ करने के लिए सरकारी सेवाओं में आने वाले हमारे अपने।

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आज भी अधिकारियों के बड़े-बड़े ठाठ और बड़ी-बड़ी सैलरीज़ के साथ एैश की जिंदगी जीने वाले इन अधिकारियों की जिम्मेदारी तय करने वाला और उन पर चैक रखने वाला शायद कोई नहीं है। इसीलिए तो लोगों को छोटे-छोटे काम के लिए भी इतना ‘खज्जल’ होना पड़ता है तथा उन्हें सीधे तौर पर कोई नहीं मिल सकता तथा यह साहब के मूड़ पर निर्भर करता है कि वे जनता से मिले या न मिले। जबकि उन्हें कुर्सी जनता की सेवा करने के लिए दी गई है, न कि अपने मूड़ के हिसाब से काम करने की। ऐसा भी देखा गया है कि साहब अपने बिजी शैड्यूल को देखते हुए लोगों को पी.ए. से मिलो कहकर अगला काम निपटाने के लिए चले जाते हैं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि अगर पी.ए. सामर्थ अधिकारी है तो फिर उच्च अधिकारी की क्या जरुरत है? क्या उच्च अधिकारी का काम पी.ए. या उनका सहायक कर सकता है। अगर नहीं तो फिर ऐसा करने वाले अधिकारियों को सेवा करने का क्या हक है? इसका मतलब तो यह हुआ कि जनता की सेवा के लिए कुर्सी पर बैठे अधिकारी का समय बहुमूल्य है और जिस जनता

के काम करने के लिए वह बैठा है वे कुछ भी नहीं। तो ऐसे में ‘लोकतंत्र’ शब्द के मायने कहां रह जाते हैं। यह भी सत्य है कि समर्थ अधिकारी पर जिम्मेदारी बहुत होती है और उसे पूरा जिला देखना होता है। मगर, इसके साथ-साथ उसके कार्यालय पहुंचने वाले लोगों का भी ध्यान रखना चाहिए तथा उनसे मिलना भी उसकी ड्यूटी में शामिल है। अगर किसी अधिकारी को ऐसी स्थिति में 2 मिनट के लिए मिलने को कह दिया जाए तो अधिकारी ऐसे टूट कर पड़ते हैं जैसे किसी ने कोई गुनाह कर दिया हो और आगे से वे ऐसा करने से भी परहेज नहीं करते कि ‘अब तुम लोग हमें ड्यूटी सिखाओगे’। इसलिए जनता चुप रहने में ही भलाई समझती है तथा मन मसोस कर समर्थ अधिकारी के कार्यालय से वापस हो लेती है, क्योंकि उन्हें डर रहता है कि कहीं ‘साहेब’ का मूड़ खराब हो गया तो जो काम करना हो वो भी बिगड़ जाए।

मैं पूरे देश की बात न करके अगर होशियारपुर की बात करुं तो शायद यह कहना गलत नहीं होगा कि यहां के अधिकतर अधिकारी जनता की सेवा के लिए तत्पर रहते हैं, मगर अफसोस है कि इन अधिकारियों पर बैठे समर्थ अधिकारी जनता को समय देने की बजाए बैठकों और दौरों में ही मशगूल रहते हैं तथा यहां तक कि उनके पास मीडिया कर्मियों से मिलने का भी समय नहीं होता। जो दिन-रात सरकार की नीतियों और प्रशासन द्वारा किए जाने वाले कार्यों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए प्रयासरत रहते हैं तथा सरकार से एक रुपया भी वेतन नहीं लेते। मीडिया वाले जोकि सरकार, प्रशासन और जनता के बीच सेतू का काम करते हैं की भी अगर कोई अधिकारी बात न सुने तो उसे सरकारी अधिकारी या जनता का सेवादार नहीं बल्कि ‘तानाशाह’ कहना भी गलत नहीं होगा। या हम यह भी अफसरशाही की चकाचौंध और कुर्सी की गर्मी से आज भी हमारे कई अधिकारी ‘मानसिक गुलामी’ से मुक्त नहीं हुए तथा खुद को अंग्रेज हकूमत का अफसर समझते हैं, जिनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता या कोई पूछने वाला ही नहीं।

कहने को तो जनता से ऊपर कोई नहीं, मगर यह सिर्फ किताबी बातें प्रतीत होती हैं तथा यह कहना भी गलत नहीं होगा कि आज भी अधिकतर अधिकारी ऐसे हैं जो न तो जन प्रतिनिधियों को कुछ समझते हैं और ही जनता को। आज हमारे नेता सबसे अधिक बदनाम हैं, मगर मेरा अपना अनुभव

है कि अधिकतर नेता भ्रष्ट नहीं होते, क्योंकि उन्हें पता होता है कि 5 साल बाद उसे फिर से जनता के बीच जाकर जीवनदान मांगना पड़ेगा, बल्कि उसे अफसरशाही में बैठी काली भेड़ें भ्रष्ट होने पर मजबूर कर देती है तथा ऐसी काली भेड़़ें अपना मनोरथ सिद्ध करने के लिए नेताओं को गुमराह करने से भी परहेज नहीं करती। क्योंकि अधिकारी को पता है कि कोई नेता या शिकायत उसका क्या बिगाड़ लेगी, उसका तबादला ही होगा न और क्या कर सकते हैं। ऐसे कई केस सामने आ चुके हैं तथा रोजाना समाचारपत्रों की सुर्खियां भी बनती हैं कि फलां अधिकारी रिश्वत लेता गिरफ्तार व भ्रष्टाचार में लिप्त तथा जन सेवाओं को करने में नाकाम रहा, मगर हैरानी की बात कि ऐसे अधिकारियों में से अधिकतर ‘पाक’ साबित होकर सरकार से सभी बैनिफिट लेते हुए पुन: कुर्सी पर आसीन हो जाते हैं। ऐसे में लोकतंत्र पर आज भी अफसरशाही भारी कहना गलत नहीं होगा, बल्कि मैं तो अधिकतर को सरकारी अफसर नहीं बल्कि तानाशाह कहने से भी परहेज नहीं करुंगा और मुझे यह भी पता है कि मेरी यह बात कई अधिकारियों को कांटे की तरह चुभ जाएगी। मगर यह बात विचार करने योग्य है कि लोकतंत्र में जनता से ऊपर जब कोई नहीं तो आज भी अंग्रेजी हकूमत जैसा शासन क्यों, ये ठाठबाठ क्यों तथा जनता को अपने अधिकारी से मिलने के लिए घंटों का इंतजार क्यों? अधिकारी के लिए सभी कार्य जरुरी हैं, मगर दर्जनों मिलने वालों को छोड़ अधिकारी का यह कहकर कि पी.ए. से मिल लो चले जाना कहां तक जायज है। अगर सरकार सच में लोकतंत्र की स्थापना करना चाहती है तो उसे अफसरशाही की मनमर्जी पर लगाम लगानी होगी तथा जनता सर्वोपरि का नारा साकार करने की तरफ भी कदम बढ़ाने चाहिए।

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