Editor’s Opinion: Sandeep Dogra
-दूसरों की बेटियों के साथ डेट करना और शारीरिक भूख शांत करने तक ही सीमित हो चुकी है युवाओं की सोच, अपनी बहन पर रखते हैं पैनी नजऱ और दूसरों की बेटी को समझते हैं ‘पुर्जा’- अधिकतर लोगों को नहीं है जानकारी कि आखिर क्यों मनाया जाता है वैलेंटाइन-डे-
-भारतीय मूल के दुकानदार थोड़े से मुनाफे के लिए वैलेंटाइन-डे से संबंधित सामग्री लाकर बेचते हैं, कोई अमेरिका या कैनेडा से आकर तो नहीं बेचता-
14 फरवरी यानि वैलेंटाइन-डे, यह दिन क्यों मनाया जाता है और इसके पीछे के सत्य तथ्यों की किसी को जानकारी भले ही न हो, परन्तु युवा पीढ़ी ने इसे प्यार का इजहार करने और प्रेमी-प्रेमिकाओं के मिलन का दिन बताकर इस दिन एक दूसरे के साथ डेट करना और शारीरित भूख को शांत करना ही समझ लिया है। हैरानी की बात तो यह है कि इस दिन के बारे में किसी तरह की कोई जानकारी न होने के चलते भेड़ बकरियों की तरह एक उस तरफ जा रहा है तो हम भी जाएंगे, यानि लकीर के फकीर जैसी युवा पीढ़ी इस बात की गंभीरता को समझना जरुरी नहीं समझ रही कि आखिर हम अपनी संस्कृति से धीरे-धीरे किस प्रकार दूर होते जा रहे हैं। आज युवा पीढ़ी का हाल यह है कि उन्हें देश के शहीदों की जानकारी तो नहीं होगी परन्तु वैलेंटाइन-डे मनाना वे नहीं भूलती। दूसरों की बेटियों के साथ डेट पर जाना और उन्हें न जाने कैसे-कैसे कमैंट पास करने इन बातों से हम सभी भलीभांति वाकिफ हैं। इतना ही नहीं ‘पुर्जा, टोटा, हीर, सस्सी’ तथा न जाने कैसे-कैसे नाम लेकर लड़कियों को संबोधित किया जाता है, जोकि सभ्य समाज के माथे पर ऐसा कलंक लग रहा है जिसे धोना इतना आसान न होगा। युवाओं का हाल तो देखिये अपनी बहन पर पैनी नजऱ रखने वाले अधिकतर युवाओं का हाल यह है कि वे चाहते हैं कि उनकी बहन पर कोई बुरी नजर न डाले और वे खुद किसी को छोड़े नहीं। वैलेंटाइन-डे के विरोध में भी कुछ स्वर उभर कर सामने आते हैं और उन्हें भी इसी माह याद आती है कि युवा पीढ़ी को इसे मनाने से रोकना है और इसके लिए फिर गुंडागर्दी का नाटक ही क्यों न करना पड़े।
पूरा साल इस माह के इंतजार में रहने वाले संगठन पूरा साल गहरी नींद में सो जाते हैं तथा फरवरी आते ही उन्हें भारतीय संस्कृति की याद आती है, पर उन्हें अपने ही भाईयों द्वारा दुकानों पर इससे संबंधित सामग्री बेचते हुए कोई भी दृश्य दिखाई नहीं देता। भारतीय संस्कृति में पैदा होकर भारत की गोद में पले-बड़े हुए यह दुकानदार अपनी औलाद के लिए ऐसा वातावरण चाहते हैं जहां पर इनकी बहु-बेटियों की तरफ पाश्चत्य संस्कृति के प्रभाव वाले फूटी आंख से भी देखें और खुद थोड़े से मुनाफे के लिए संस्कृति के विपरीत जाकर सामान को ऐसे डिसप्ले में रखेंगे कि देखने वाले का उसे खरीने का मन हो जाए और इन्हें मोटा मुनाफा हो जाए।
इतिहास के पन्नों पर नजर दौड़ाएं तो हम देखेंगे कि भारतीय को उनके लालच और स्वार्थ ने ही पतन की और धकेला है तथा बार-बार ‘मार’ खाने के बावजूद भी संभलना इसकी फितरत से गायब होता जा रहा है। हाल यह है कि राजनीतिक आकाओं द्वारा अपना साम्राज्य स्थापित रखने हेतु धीरे-धीरे बड़ी ही होशियारी के साथ समाज के हर अंग को बांट कर रख दिया गया है। जातिवाद खत्म करने के स्थान पर जातिवाद की राजनीति, धर्म के नाम पर राजनीति और समाज से बुराईयों को खत्म करने के नाम पर राजनीति करके हर वर्ग को बांट के रख दिया है।
साधारण सी बात है कि हम रोजाना कितने लोगों से मिलते हैं या हमारा कोई परिचित किसी अन्य व्यक्ति से हमारा तारुफ करवाता है तो क्या उस समय हम उसकी जाति या धर्म पूछते हैं। प्यार का बंधा हर व्यक्ति बहुत ही सहज स्वभाव और भाईचारे की झलक पेश करता हुआ मिलता है। तो सोचने वाली बात है कि आखिर मनों में जहर कौन घोल रहा है। किसी को सत्ता का लालच तो किसी को समाज में अपनी कोरी चौधर का लालच समाज को एक नहीं होने देना चाहता तथा इसी के चलते हमारा स्वार्थ और लालच हमारी संस्कृति को दीमक बनकर चट कर रहा है। भारत वर्ष की तस्वीर पर नजऱ दौड़ाएं तो भारतीय धरती किन-किन देशों में बंट चुकी है अगर इसका सही आंकलन लगाया जाए तो हमें मालूम होगा कि हम क्या थे और क्या हो गए। किसी संस्कृति का सम्मान करना या उसके गुणों को जीवन में धारण करना सही है, परन्तु यह सब अपनी संस्कृति के पतन पर कदापि मंजूर नहीं किया जा सकता। आज हमारा जो हाल हो रहा है वह इसलिए हो रहा है कि हम अपनी संस्कृति कोभूलते जा रहे हैं और पाश्चात्य संस्कृति को पूरी तरह से अपनाने में असमर्थ हैं, क्योंकि हमें दोहरी जिंदगी जीने की आदत हो चुकी है। हम अपने लिए तो भोग-विलास चाहते हैं, परन्तु दूसरा आंख उठाकर भी न देखे। तो ऐसे दोहरे मापदंडों के सहारे आखिर आदमी कर तक चल सकता है।
आपको एक बात सुनाता हूं, मैं एक कवि सम्मेलन में गया। वहां पर एक कवि ने हीर-रांझा पर कविता सुनाई तो सभी ने खूब तालियां बजाई। उसी महफिल में एक साहिब बड़े ही गंभीर मुद्रा में बैठे हुए थे। मैंने उनसे पूछ कि क्या आपको फलां कवि की रचना पसंद नहीं आई। तो थोड़े गर्म लहजे से बोले, इन कवि महाशय से मैं सिर्फ एक सवाल करना चाहता हूं कि अगर हीर इनके घर में पैदा होती तो क्या यह ऐसी कविता कहते। दूसरों की बहू-बेटियों पर अंगुली उठा देना आसान है, पर पता उसी को होता है जिस पर बीतती है। उनका जवाब सुनकर मैं सोच में पड़ गया था कि वाक्य में जिसे चोट लगती है दर्द भी तो उसी को होता है। इसी प्रकार आज हमारी युवा पीढ़ी जिस तेजी के साथ पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंग रही है उससे ऐसा दिखाई देने लगा है कि वह दिन दूर नहीं जब लोग गुरुओं के नाम भूल जाएंगे और गीता व रामायण के श्लोक भूल जाएंगे। तब हमारे पास सांप निकल जाने के बाद लकीर पीटने के सिवाये कुछ नहीं होगा।
—
यह लेखक के अपने विचार हैं, इससे किसी का सहमत होना जरुरी नहीं है। अगर कोई सुझाव हो तो इस पते पर मेल करें:-[email protected]