एनओसी: एक साइन की कीमत तुम क्या जानो चन्नी बाबू, यहां तो सब ऐसे ही चलता है, 15 हजार-15 हजार

होशियारपुर में स्थित एक विभाग के अधिकारी द्वारा नो ऑबजैक्शन सर्टीफिकेट पर साइन करने के 15 हजार रुपये चार्ज किए गए। बता दें कि किसी प्रोजैक्ट के लिए सरकार द्वारा तय माणकों के हिसाब से अलग-अलग विभागों से एनओसी (नौ ऑबजैक्शन सर्टीफिकेट) की जरुरत पड़ती है। अलग-अलग विभागों से होती हुई फाइल जब एक अन्य विभाग में पहुंची तो वहां कुर्सी पर बैठे बाबू द्वारा एनओसी देने में पहले तो आना कानी की जाने लगी और फाइल को लटकाया जाने लगा। इस बात से दुखी होकर एनओसी लेने वाले व्यक्ति ने साहिब को सीधा ही पूछ लिया कि साहिब साइन कैसे होंगे। कुर्सी पर बैठे अधिकारी ने एक साइन की कीमत बताते हुए सारा माजरा बयान कर डाला। काम में देरी होती देख व्यक्ति ने रुपये दिए और हरे व नीले नोटों की रंगत से पैन में सियाही खुद-ब-खुद साइन करने के लिए उतावली दिखी। साहब ने “खिड़े मत्थे” फाइल पर साइन किए और भविष्य में भी कोई काम हो तो बताने के लिए कहा। क्योंकि, अधिकारी मंझे हुए खिलाड़ी लग रहे थे और शायद जानते थे कि भविष्य में भी काम तो उन्हीं से पडऩा है।

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लालाजी स्टैलर की विभागीय चुटकी

काम करवाने वाले व्यक्ति ने पहले सोचा था कि वह इसकी शिकायत करे, लेकिन किसी की नौकरी पर बात आ जाएगी सोचकर उसने ऐसा नहीं किया और अपना काम करवाने में ही भलाई समझी। क्योंकि, अकसर ऐसे मामले सामते आते रहते हैं कि जब किसी ने किसी अधिकारी की शिकायत की हो या कोई अन्य कार्यवाही की हो तो उसे बाद में काफी परेशानियों से गुजरना पड़ता है। ऐसे में लोग शिकायत व किसी झमेले में फंसने की जगह किसी तरह अपना काम करवाने में ही भलाई समझते हैं। सो फिलहाल तो यह सारा मामला जब से चर्चा में आया है तब से ईमानदारी से काम करने वाले सरकारी बाबूओं (अधिकारियों) में छिपी बैठी काली भेड़ों को लेकर कई बातें सरगर्म हैं। अब देखना यह होगा कि विभाग के आला अधिकारियों तक यह बात पहुंचने पर वे इसका किस प्रकार संज्ञान लेते हैं। वैसे एक बात है हमारी जानकारी में कई ऐसे अधिकारी आ चुके हैं, जिनके एक साइन की कीमत 5 हजार से लेकर 20 हजार तक है। कुछेक ने तो अपनी आदतों में सुधार कर लिया है जैसे समाचार भी मिले, लेकिन अभी भी कईयों के पैन में सियाही बहुत महंगी पड़ रही है। जिस पर लगाम लगाने के लिए जहां जिला अधिकारियों को सख्त कदम उठाने की जरुरत है वहीं सरकार द्वारा ठोक कदम उठाए जाने भी समय की मांग हैं।

सरकारें भले ही समय-समय पर सरकारी कर्मियों की कार्यप्रणाली में सुधार के दावे करती रहीं हों या मौजूदा सरकार भी कर रही हो, लेकिन जमीनी स्तर पर आलम यह है कि आज भी कई कर्मचारी ऐसे हैं जो सरकार की साख को बट्टा लगाने के साथ-साथ अपने विभाग की मर्यादा का हनन करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। अकसर लोग कहते हैं कि युवाओं को मौका दो, युवा आएंगे तो ईमानदारी से काम होगी। लेकिन हर जगह यह तर्क सार्थक सिद्ध नहीं हो रहा। युवाओं के मुंह को लगने वाला रिश्वखोरी का जहर व्यवस्था सुधार में सबसे बड़ा रोड़ा बन जाता है। ऐसे में जहां सरकार के दावे धरे रह जाते हैं वहीं विभागयी कार्यप्रणाली पर भी सवालिया निशान लगने स्वभाविक हैं।

क्या? कौन सा अधिकारी है? किस विभाग का है? अब ऐसे प्रश्न पूछकर आप मुझे पंगे में डाल देते हो। चलो आज बता ही देता हूं कि कोई सिविल सप्लाई, सिविल सप्लाई नाम का विभाग है, जिसके एक अधिकारी यह करतूत चर्चाओं में है। इससे ज्यादा कुछ नहीं। मुझे दें इजाजत। जय राम जी की।

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