ब्रह्म को जानने के जिज्ञासु को करना चाहिए आत्मतत्व की अनुभुति प्राप्त करने का प्रयास: साध्वी सरोज

होशियारपुर(द स्टैलर न्यूज़),रिपोर्ट: डा. ममता। दिव्य ज्योति जागृति संस्थान के गौतम नगर आश्रम में प्रवचन करते हुए श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या साध्वी सरोज भारती जी ने कहा कि हमारे संत महापुरूषों नें कहा कि जहाँ पर ज्ञान है वहीं धर्म है। धर्म को हम शब्दों के द्वारा नही समझ सकते। शब्द स्वयं में पूर्ण न होने के कारण हमें सत्य तक नहीं ले जा सकते हैं।

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शब्दों का जाल तो घने जंगल की भाँति हमारे चित को भटकाने का कारण बन सकता है, जीवन की गुत्थी को सुलझा नही सकता। इसलिए ब्रह्य को जानने की जिज्ञासा रखने वाले जिज्ञासु को आत्मतत्व की ही अनुभूति को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। शब्दों का कार्य तो हमारे अन्तर में जिज्ञासा उत्पन्न करना है। जिस प्रकार भोजन की चर्चा हमारी भूख को जगा तो सकती है, परन्तु मिटा नही सकती। भूख को मिटाने के लिए तो भोजन खाना ही आवश्यक है।

संत कहते है कि जिनके अन्तर में बुद्वि के द्वारा सभी रहस्यों क ो सुलझाने की लालसा थी। परन्तु यह बुद्वि तो हमें संसार के रस का बोध कराने में भी समर्थ नही हैं तो प्रभू के आलौकिक रस की अनुभूति यह क्या जाने के प्रयास में थे परन्तु कोई सफलता हाथ नही लग रही थी। अपनी बुद्वि के दायरे में उलझे रहते थे। ऑगस्टाइन अपने विचारों में उलझे हुए एक दिन समुद्र के किनारे जा रहे थे कि किसी बालक के रोने की आवाज सुनाई दी।

देखा कि किनारे पर बैठा बालक हाथ में एक लोटा लिए हुए है और रो रहा है। ऑगस्टाइन उस बालक के पास गए और प्रेम से बालक को बुलाया, रोने का कारण पूछा कि यहाँ बैठे क्यों रो रहे हो तब बालक ने कहा कि आप मेरी समस्या का समाधान नही कर सकते, इतना कह कर बालक फि र रोने लगा। ऑगस्टाइन आश्चर्यचकित हुए बड़ी मुश्किल से बालक को चुप कराया। कहा कि बताओ तो सही कि समस्या आखिर है क्या? उन्होंने कहा कि हो सकता है कि कोई न कोई समाधान निकल ही आए। तब बालक ने कहा कि मैं इस समुद्र को हाथ में पकड़े हुए इस लोटे में डालना चाहता हूँ। मैं भी इस छोटी सी बुद्वि के द्वारा ईश्वरीय सता का भेद जानना चाहता हुँ।

अंत में साध्वी जी ने कहा कि जब ज्ञान चक्षु मिला जिसके द्वारा हदय में प्रभु के दर्शन हुए। जब हदय में ही प्रभु के दर्शनों की प्राप्ति हो गई। उन्होंने कहा कि मैं एक भटकती हुई भेड़ की तरह प्र्राकृतिक इन्द्रियों द्वारा तूझे केवल बाह्य जगत में खोजता हुआ न जाने कहाँ- कहाँ भटकता रहा, जबकि तू मेरे हदय में ही विराजमान था।

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