होशियारपुर (द स्टैलर न्यूज़)। योग साधना आश्रम मॉडल टाउन में धार्मिक सभा के दौरान प्रवचन करते हुए मुख्य आचार्य चंद्र मोहन ने कहा कि हम भगवान को पाना चाहते हैं लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है। उन्होंने कहा कि सदगुरु देव चमन लाल जी महाराज कहां करते थे कि हम गुरु के पास भगवान को पाने का रास्ता पाने के लिए ही जाते हैं। क्योंकि बिना गुरु के भगवान की प्राप्ति नहीं हो सकती। अगर हम संसार की इच्छा लेकर गुरु के पास जाए तो गलत होगा। हम संसार में आकर मुक्ति के मार्ग पर नहीं चलते तो संसार में आने का कोई लाभ नहीं। संसार हमारे लिए एक बंधन या कैद है। संसार हमें कहीं भागने नहीं देता। हम शरीर रूपी कडिय़ो से जकड़े हुए हैं, अगर हम एक भी कड़ी को तोडऩा चाहे तो बाकी कडिय़ां और मजबूत हो जाती है। हम इस कडिय़ों से मुक्ति चाहते हैं। इन कडिय़ों में वही जकड़ा जाता है जो बुरे कर्म करता है। इसी वास्तविकता को हमने समझना है। संसार जेल खाने के समान है और शरीर कडिय़ों के समान यदि हम इस जेल से निकलना चाहते हैं तो अच्छे कर्म करो यम, नियम का पालन करना होगा। यम का पहला अंग है अहिंसा यानि किसी को दुख ना देना। हिंसा के तीन रूप होते हैं।
एक व्यक्तिगत, एक सामाजिक, एक धार्मिक तीनों रूपों से हमसे पाप हो जाते हैं। व्यक्तिगत रूप में इसके तीन स्वरूप है। मानसिक हिंसा, वाणी की हिंसा और शारीरिक हिंसा। मन से जब हिंसा करते हैं तो दूसरे को दुख देते हैं। मन बड़ा सूक्ष्म है इसकी तिरंगे भी सूक्ष्म है। जो दिखाई नहीं देती। फूलों की सुगंध भी सूक्ष्म होती है जो दिखाई नहीं देती। आप अगर किसी के लिए बुरा चिंतन करें तो उसके मन को पता लग जाता है। शरीर को चाहे पता ना लगे। हमारा किसी के प्रति द्वेष हो तो उसके मन में पता लगने लगता है। हमें मानसिक रूप से किसी को दुख नहीं पहुंचाना चाहिए। मन से किसी को सुखी देखो तो मित्रता की भावना से देखो। मन को शुद्ध रखो यह मैला नहीं होना चाहिए।
अगर जन्म मरण से छूटना है तो मन से अहिंसक बनना पड़ेगा। जब हम किसी को बुरा शब्द कहते हैं तो उसको गहरी चोट लगती है। कहते हैं शरीर का कटा हुआ मिल जाता है लेकिन वाणी का कटा हुआ नहीं मिलता। जिसको चोट लगी वह बदले की भावना भी रखेगा। बदले की भावना जन्म मरण की बेल बन जाती है। जब हम हिंसा करते हैं तो बड़े खुश होते हैं। जब उसका फल मिलता है तो रोते हैं। हमारी वाणी सत्य और मधुर होनी चाहिए। इसीलिए कहते हैं बोलने से पहले तोलो। हमारे कर्म भी ठीक होने चाहिए। कर्म का फल तो भुगतना ही पड़ेगा।