बाहरी सुंदरता तभी मुबारक यदि हमारे मन में शांति और पवित्रता कायम : सुदीक्षा जी

होशियारपुर (द स्टैलर न्यूज़)। मन को स्थिर रखने के लिए हमें इस स्थिर और अनंत परमात्मा से नाता जोडऩा होगा। ये आशीष वचन निरंकारी सतगुरु माता सुदीक्षा जी महाराज ने  यूरोप के आयोजित वर्चुअल सत्संग कार्यक्रम से कहे। उन्होंने फरमाया कि  सेवा का एक आवश्यक पहलु उसका निष्काम भाव है। अगर हम इस भाव से घर या द$फ्तर के छोटे छोटे काम भी कर रहे होते हैं, तो वो भी सेवा बन जाते हैं। अगर हम सहनशील और निष्पक्ष होने का दावा करते हैं, तो वो हमारे स्वभाव में भी प्रदर्शित होना चाहिए। अक्सर हम छोटी छोटी बातों पर बगैर किसी कारण के संकीर्ण और असहनशील हो जाते हैं।   एक स्वस्थ संवाद हमारे अहंकार के कारण बहस में बदल जाता है। केवल परमात्मा का एहसास ही हमारे अहम भाव को कम कर सकता है। हमें ब्रह्मज्ञान लेने से पूर्व ही तन, मन और धन का अभिमान तजने का प्रण दिया गया।  अगर हम ज्ञान की ²ष्टि से सबको देखेंगे, तो सभी अपने परिवार का हिस्सा लगेंगे।

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उन्होंने फरमाया कि बाबा हरदेव सिंह जी महाराज भी कहते थे, कि अगर हम दीवार रहित संसार की कल्पना को साकार करना चाहते हैं, तो हमें पहले अपने मन के अंदर मौजूद नफरत और भेदभाव की दीवारों को गिराना होगा। हम नफरत और वैर विरोध की इतनी ऊंची ऊंची दीवारें मन में खड़ी कर लेते हैं, जिसमें अपने सांस लेने का भी स्थान नहीं रहता।  रिश्तों में, दूसरों के माफी मांगने की प्रतीक्षा करने से बेहतर है, कि हम ही उनसे माफी मांग लें। हमें छोटी छोटी बातों से ऊपर उठना होगा। हम उम्मीद करते हैं कि दूसरे हमें तुरंत माफ कर दें, पर खुद हम एक लंबे समय तक दूसरों के प्रति घृणा का भाव रखते हैं। ये हमारे लिए ही नुकसान का कारण बन जाता है। हम ही बेचैन और कड़वे हो जाते हैं दूसरी तरफ, अगर हमसे अनजाने में कोई भूल हो जाय, तो इस निरंकार से माफी मांग लेनी चाहिए।  आंतरिक स्थिरता और विकास के लिए हमें क्षमा मांग लेनी चाहिए। उन्होंने फरमाया कि अक्सर हम किसी का चेहरा देख कर ही कह देते हैं, कि इसका मन कितना साफ है। कोई तनाव में हो, तो भी उसके चेहरे से ही आभास हो जाता है। दरअसल, हमारी बाहरी सुंदरता तभी मुबारक है, अगर हमारे मन में शांति और पवित्रता कायम है। ये केवल निरंकार से भावपूर्ण रूप से जुड़ कर सेवा, सिमरन और सत्संग करते हुए ही संभव है। निरंकार ने सबको बराबर दामन दिया है पर कुछ लोग शुकराना करते हैं, तो कुछ शिकायत। कुछ लोग हर चीज में अच्छाई देखते हैं, तो कुछ केवल बुराई।


हम यहां तक सोचने लग जाते हैं कि हमारे बिना ये कार्य कोई और कर ही नहीं सकता। शायद हम भूल जाते हैं कि निरंकार किसी से भी, कोई भी कार्य करवा सकता है। एक शायर ने कहा समझेगा आदमी को वहां कौन आदमी, बंदा खुदा को जहां खुदा मानता नहीं. कुछ लोग आत्म स्तुति और अहंकार में इतने आसक्त हो जाते हैं, कि वो खुद को ईश्वर से भी शायद श्रेष्ठ मानने लग जाते हैं। हमें अपने असली मूल, इस निरंकार से जुड़ के रहना चाहिए। हमारा जीवन बहते पानी की तरह सहज और विनम्र होना चाहिए।   हमें एक दूसरे का सहारा बनना है, क्योंकि सभी तो परमात्मा के बंदे हैं। दूसरों को आईना दिखाने से पहले, खुद अपना चेहरा उसमें देख कर सुधार लाना होगा। हमें खुद पर काम करना होगा। मन के आईने को साफ रखना होगा। आत्म निरीक्षण और आत्म सुधार से हमें विवेकी और आनंद स्वरूप बनना होगा।

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