होशियारपुर से संबंधित अकाली नेताओं का पूर्व सांसद वरिंदर सिंह बाजवा की अगुवाई में कांग्रेस में घर वापसी करने की चर्चाओं ने राजनीतिक गलियारों में गर्माहट पैदा कर हो, परन्तु राजनीतिक माहिर इसे अकाली दल को झटका या कांग्रेस के नसीब…? आगे आप खुद समझदार है वाक्य को पूरा करने में सक्षम हैं। क्योंकि जो नेता मौकाप्रस्ती की राजनीति के माहिर माने जाते हैं उनके किसी पार्टी में आने या जाने से वोटरों के दिलों पर कोई खास असर नहीं पड़ता। ऐसे में इन नेताओं का अकाली दल छोडऩा एवं कांग्रेस में जाना इनका निजी हित तो हो सकता है पर इसमें लोकहित कहां है शायद इसका जवाब इन नेताओं के पास भी नहीं होगा। पूर्व सांसद वरिंदर सिंह बाजवा तथा इनके साथियों की राजनीतिक फितरत कैसी रही यह होशियारपुर वासियों से बेहतर कोई नहीं समझता। आप खुद ही अंदाजा लगाएं कि जो नेता मात्र पद की चाहत में एक पार्टी से दूसरी और दूसरी से पहली में जाने में जरा भी संकोच नहीं करता उसे जन हितैषी कहना तर्कसंगत नहीं हो सकता।
चुनाव आते ही क्यूं याद आता है सच्चे सिपाही का फर्ज?
राजनीकित माहिरों की मानें तो कांग्रेस पार्टी के सच्चे सिपाही की तरह काम करने वाले बाजवा का राजनीतिक कैरियर पर नजऱ दौड़ाई जाए तो आप पाएंगे कि किस तरह से उक्त नेता चुनाव नजदीक आते ही उस पार्टी की तलाश करने लगते हैं जो सरकार आने पर उन्हें ऊंचे पद से नवाजने का वायदा करे। राजनीतिक गलियारों में चर्चाओं का बाजार कुछ यूं भी गर्म है कि अकाली दल की मौजूदा स्थिति में अधिकतर अकाली घुटन महसूस कर रहे हैं तथा आगामी दिनों में और भी अकाली नेता व कार्यकर्ता कांग्रेस व अन्य पार्टियों में जा सकते हैं। हालांकि अकाली दल के ज्यादातर नेता इसे पार्टी को फर्क न पडऩे वाला बदलाव बताते हैं, परन्तु आप व कांग्रेस के बढ़ते ग्राफ ने इनकी नींद उड़ा रखी है। ऐसे में भले ही नेता किसी भी कद का हो उसका पार्टी छोड़ कर जाना कहीं न कहीं पार्टी नीतियों के प्रति उनके उठते विश्वास को प्रकट करता है। राजनीतिक माहिरों की माने तो हालांकि बाजवा के जाने से अकाली दल को कोई खास फर्क नहीं पड़ता परन्तु चुनाव के समय में होने वाली उथल-पुथल कईयों के दिलों में बदलाव का रंग भर सकती है। इतना ही नहीं होशियारपुर में हुए जमीन घोटाले में अकाली नेताओं के नाम प्रमुखता से आना व मामले में कोई कार्रवाई न होने से अकाली दल के प्रति लोगों के दिलों में रोष व्याप्त है तथा ऐसे में नेताओं का पार्टी छोडक़र जाना शुभ संकेत तो नहीं है। दूसरी तरफ कांग्रेस की बात की जाए तो पार्टी सूत्रों का कहना है कि नेता कैसा भी हो, उसका आधार हो या न हो अकाली दल को ऐसे झटके आने वाले दिनों में भी लगते रहेंगे, क्योंकि और भी बहुत सारे अकाली नेता, पार्षद व कार्यकर्ता कांग्रेस के साथ जुडऩे की राह जोत रहे हैं।