होशियारपुर (द स्टैलर न्यूज़)। दिव्य ज्योति जाग्रति संस्थान की ओर से स्थानीय आश्रम गौतम नगर होशियारपुर में धार्मिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया। जिसमें संस्थान के संस्थापक एवं संचालक श्री गुरू आशुतोष महाराज जी की शिष्या साध्वी सुश्री मनस्वनि भारती ने विचार देते हुए कहा कि एक बार ‘वन्दे मातरम’ के रचयिता बंकिमचन्द्र एचटर्जी की भेंट ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस से हुई। ठाकुर ने उनसे पूछा- आपके अनुसार जीवन का उद्देश्य क्या है? बंकिमचंद्र तपाक से बोले- समाज की सेवा करना, दूसरों का भला करना, सबके लिए अच्छा सोचना व करना- यही जीवन का उद्देश्य है। जैसे ही ठाकुर ने यह सुना, तो कडक़ते हुए स्वरों में बोले-इतने महान जीवन का उद्देश्य भला इतना छोटा कैसे हो सकता है? यह सब जो आपने बताया, वह तो मानव-जीवन का कर्तव्य है।
जीवन का लक्ष्य नहीं। आगे साध्वी जी ने कहा हममें से अधिकतर लोग भी यही चूक कर जाते हैं। अगर कोई हमें अध्यात्म की ओर प्रेरित करता है,तो अक्सर हम यही कह देते हैं- किसी का मन न दु:खाओ, किसी का बुरा मत करो, सबका अच्छा करो, यही काफी है। यही भक्ति-भजन सब है। यही जीवन का लक्ष्य है। परन्तु यह पूर्ण सत्य नहीं है। सबका अच्छा करना, समाज-सेवा करना-ये सब साधन हैं, साध्य नहीं! ये सब मार्ग हैं, मंजिल नहीं। ये सब कर्तव्य हैं, लक्ष्य नहीं। दूसरों का अच्छा करना, किसी का बुरा न करना, समाज सेवा करना- ये सब ईंधन की तरह हैं, जो जीवन-लक्ष्य को पाने में हमारे सहायक हैं। ये सब नि:सन्देह आवश्यक हैं। पर सिर्फ अच्छाई-तक सीमित हो जाना ही ठीक नहीं। अध्यात्म की परिभाषा को-नैतिकता तक संकुचित कर देना उचित नहीं। जीवन का लक्ष्य तो उससे भी ऊंचा, कहीं ऊंचा है। अपनी आत्मा को ब्रह्म रूप में स्थापित या स्थित करना- यही जीवन का वास्तविक ध्येय है। अत: समाज की सेवा करना, सबका अच्छा करना, किसी का बुरा न सोचना और न ही बुरा करना- ये सब तो स्वयं ही हमारे आचरण में उत्तर आते हैं, जब हम आत्मानुभूति को प्राप्त करते हैं, जब मन-बुद्धि के स्तर से कहीं ऊपर आत्मा में स्थित हो जाते हैं। यह केवल हमारा मत ही नहीं, विश्व-भर के अन्य मतों, संतों व सभी धार्मिक ग्रंथों शास्त्रों का यही सार है, यही तथ्य संतों महापुरुषों ने समय-समय पर जनमानस के सामने रखा।