दातारपुर (द स्टैलर न्यूज़)। महान क्रांतिकारी सरदार करतार सिंह सराभा का जन्म 24 मई, 1896 को लुधियाना में हुआ था और वे भारत के प्रसिद्ध क्रान्तिकारियों में से एक थे। उन्हें अपने शौर्य, साहस, त्याग एवं बलिदान के लिए हमेशा याद किया जाता रहेगा। आज उनकी शहादत के अवसर पर भाजपा जिला महामंत्री सतपाल शास्त्री,तथा मंडल अध्यक्ष अनिल वासिष्ठ ने कहा कि महाभारत के युद्ध में जिस प्रकार वीर अभिमन्यु ने किशोरावस्था में ही कर्तव्य का पालन करते हुए मृत्यु का आलिंगन किया था, उसी प्रकार सराभा ने भी अभिमन्यु की भांति केवल उन्नीस वर्ष की आयु में ही हँसते-हँसते देश के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया। शास्त्री तथा वसिष्ठ ने कहा उनके शौर्य एवं बलिदान की मार्मिक गाथा आज भी भारतीयों को प्रेरणा देती है और देती रहेगी। यदि आज के युवक सराभा के बताये हुए मार्ग पर चलें, तो न केवल अपना, अपितु देश का मस्तक भी ऊँचा कर सकते हैं। उन्होंने कहा सराभा पर देशद्रोह और कत्ल का मुकदमा चला, और इन आरोपों के तहत उन्हें सज़ा-ए-मौत सुना दी गयी। मौत से भला कौन नहीं डरता, एक मौत ही तो ऐसा रहस्य है जिसका राज खुलने से इंसान हमेशा डरता रहा है।
लेकिन साराभा तो दीवाने थे, उन पर भारत मां के स्नेह का खुमार चढ़ा हुआ था। वो तो खुश थे। उक्त नेताओं ने बताया सजा-ए-मौत मिलने के बाद एक रोज उनके दादा उनसे जेल में मिलने आये और उनसे कहा कि “तू ने ये क्या किया, सब रिश्तेदार तेरे इस कदम को बेवकूफी भरा बता रहे हैं। ” इसके जवाब में करतार सिंह सराभा ने मुस्कुराते हुए कहा ‘जो ऐसा कहते हैं उनमे से कुछ लोग हैजे से मर जाएंगा, कोई मलेरिया से कोई प्लेग से। लेकिन मुझे ये मौत देश की खातिर मिलेगी। सबकी ऐसी किस्मत कहां होती है। ” इसके आगे उनके दादा के पास कुछ कहने को बचा ही नहीं। उन्हें श्रद्धासुमन भेंट करते हुए उन्होंने कहा 16 नवंबर 1915 को लाहौर की जेल में सरदार करतार सिंह साराभा 19 वर्ष की छोटी सी आयु में शहादत पा गए। सरदार करतार सिंह सराभा 19 साल की उम्र में फांसी पर झूम गए थे। गदरी पार्टी या आंदोलन कामयाब तो ना हो सका, लेकिन किसे पता था कि सरदार करतार सिंह सराभा, भगत सिंह के प्रेरणा स्रोत बनकर इसी लाहौर की जेल में 23 मार्च 1931 को दुबारा क्रांति की लहर पैदा कर जाएंगे। उन्होंने कहा कुछ खास नहीं था उनमें जो देश के लिए, आने वाली पीढिय़ों के लिए हंसते हुए सूली पर चढ़ गए। वो भी हमारी तरह ही थे आम से इंसान। बस फर्क इतना सा था कि उन्होंने देश को सबसे पहले रखा। उन्होंने अपने खून में कलम डुबो कर इंकलाब लिखने की हिम्मत की। सरदार करतार सिंह साराभा और उन जैसे सभी शहीदों को उनकी बहादुरी और जज्बे के लिए दिल से सलाम।