अधीनता में गुम मेरा स्वतंत्र भारत कहां है? :- स्वीन सैनी

होशियारपुर, (द स्टैलर न्यूज): बचपन से हम में एक राष्ट्रीय चेतना का संपोषण किया गया और हमारे लिए देश की धरती कोई निर्जीव पदार्थ नहीं, बल्कि माँ समान है। अटूट देश भक्ति और धार्मिक प्रवृत्ति वाले माहौल में बड़े होते हुए भी कभी किसी ने हमारे दोस्तों की जाति या धर्म नहीं पूछा था। रुढि़वादी परिवारों में भी हमें संपूर्ण मानव जाति के लिए स्नेह और हर धर्म का सम्मान सिखाया गया। और आज उम्र के इस दौर में अपने उस देश का धर्म व जाति के नाम पर इतना बड़ा आन्तरिक विभाजन देखकर मन विचलित होकर सोचता है कि देश तब विकसित था या अब पिछड़ा है?

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जय जवान जय किसान के नारे से प्रफुल्लित आकाादी के 70वें साल में आजाद हिन्दुस्तान की सरजमीं पर जब बदहाल है जवान और मर रहा किसान, देश छोडक़र जा रहा आज हर नौजवान, अपने ही घर में अपनों से लुटने जैसा होता अनुमान, हर कदम खतरे में बेटियों की आन बान और शान तो कलम हो उठती है परेशान कि यह किस तरफ जा रहा मेरा (आजाद ) हिन्दुस्तान? इसमें दो राय नहीं कि मेरे सपनों का भारत, संसार की एक बड़ी आत्मिक पुंजी रखता है। यह सचमुच एक वैष्विक मानव-पूंजी वाला राष्ट्र रहा है, जिसकी महाधारा में सदियों से संसार की हर नस्ल और धर्म समन्वित हुए हैं।

यह मानव-पूंजी समय के साथ राजनीतिक षडय़न्त्रों से प्रभावित सदियों की तंद्रा में निष्क्रिय होती गई है। इस माहौल में मैं पूछूं आज के भारत की परिभाषा तो ना चाहते हुए भी मेरी लेखनी के आंसू यूँ छापते हैं। हमारे भारत के भविष्य के लिए बड़ा खतरा है। क्योंकि भले ही लाख आँख मूंदे, मगर हम जानते हैं कि एक ओर अपने ही राजनेता देष के सुरक्षाबलों और सैनिक वीरों का मनोबल धीरे धीरे तोडक़र बाहरी शत्रुओं की राह आसान कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर पश्चिीमी देश अलग अलग तरीके से नई उभरती पीढ़ी को अपनी ओर आकर्षित कर अन्दरूनी ताकत पर वार कर रहे हैं। और हम इसे ग्लोबल स्तर पर अपनी जीत मानकर विकास की खोखली तूती बजा रहे हैं। याद रहे अब जन-जागरण ही निहित स्वार्थों की राजनीति का विकल्प बन सकेगा। अगर ऐसा ना हुआ तो वह भारत जो हकाारों वर्ष तक अपनी आंतरिक उर्जा के बल पर बचा रहा, पहली बार इतिहास में एक ऐसे संकट से गुजरेगा, जो उसे विखंडन की ढलान पर खड़ा कर देगा।

ठीक उसी गरीब माँ की तरह जिसकी सुध विदेष में बसे विकासषील अमीर बेटे ने नहीं ली और वो अकेली उसकी राह देखती तड़पकर कंकाल बन गई। यहां मेरा आशय ग्लोबल स्तर पर दूसरे देषों में परस्पर निर्भरता या एकजुटता का भाव ना रखना नहीं है। दोनों का समावेष होगा तो हर भारतीय को इसका लाभ मिलेगा मगर देशप्रेम और राष्ट्रवाद के नाम पर अलगाव पैदा करने का दोगला व्यवहार सही नहीं। महात्मा गांधी का कहना था कि हमारा देश एक ऐसा घर होना चाहिए जिसका हर दरवाकाा और खिडक़ी खुली हो जिसमें दुनिया भर की हवा तो आये पर हम अपने पैरों पर मजबूती से खड़े रहें। सो नागरिक के लिए और राजनेता के लिये अपनी स्वतन्त्रता चुनने के मायने अलग अलग नहीं हो सकते।

स्वतन्त्रता के महायुद्ध के दौरान हर जाति, धर्म व कुनबे के हर बलिदान को भूल जाने वाली भारतीय जनता को इस नशीली नींद से जागना होगा और इन सवालों पर गौर करना होगा। डींगें हांकने से और भाषण फांकने से कुछ नहीं होगा। क्योंकि दम तोड़ते एतिहासिक भारत को एक नया समाज, एक नई दिशा, एक नया नायक और नया जीवन चाहिये। जिसके लिए जरूरी शर्त यह है कि वर्तमान को घेरे हुये सभी तरह के सड़े गले दमघोटू राजनीतिक विचारों का संपूर्ण ध्वंस हो और नफरतों से परे एकजुट नया समाज संरचित हो, जो नई मानसिकता के साथ नई उर्जा को जन्म दे सके, जिसमें नई नस्लें खुली सांस लेकर सचमुच स्वयं का व देष का समुचित विकास कर सकें।

माफ कीजिये, जिस तरह देष के हालात और रोकााना हो रहे व्याकात हैं, स्वतनत्रता दिवस मुबारक कहने का जरा भी माहौल नहीं बन रहा। मगर एक आशा जरुर है किनिराषा के ये काले बादल छंटेंगे, देश के नागरिक जगेंगे और नए सवेरे के साथ विचारों की नई आजादी का जन जरूर होगा और वादा है कि तब मेरी कलम में उदासी नहीं, वही बचपन का गुरूर होगा।

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