बाल दिवस: मजबूत नींव के निर्माण के नए संकल्प

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“हमने लोहे को पिघला के जो खिलौने ढाले, उनको हथियार बनाने पे तुली है दुनिया,
नन्हें बच्चों से छीन के उनका बचपन, बेवक्त उन्हें होशियार बनाने पे तुली है दुनिया”

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बच्चे वक्त से पहले बढ़े हो रहे हैं, उनकी मासूमियत कहीं खो रही है, वे बड़ों की बात नहीं सुनते, पीढिय़ों का अन्तराल बढ़ रहा है ….. ऐसी कई बातें लगभग हर माता पिता के बीच, हर समारोह, पब्लिक फोरम में सुनने को मिल जाती है। आज बाल दिवस है, तो आईये जऱा सोचें कि ये सब क्यूं हो रहा है? आखिर कौन हैं ये बच्चे? और किसके हैं ये बच्चे? अगर इनके आहार, विचार या व्यवहार में कुछ गड़बड़ है तो इसके जि़म्मेवार क्या सच में ये बच्चे हैं? दरअसल आज के आधुनिक बच्चों की कमियां गिनाना खुद पर सवाल उठाना है। हम इसकी जि़म्मेवारी से मुक्त नहीं हो सकते। बच्चों में बढ़ती उच्चश्रृंखलता, बेबाकी, गुस्सा, उतावलापन, तनाव या भटकन किसकी देन है? आधुनिकता की अन्धी दौड़ में शामिल हम अभिभावक, हमारा पारिवारिक परिवेश, हमारी शिक्षा प्रणाली का स्तर, अध्यापकों की मानसिकता, मौजूदा सामाजिक हालात, सब इस जुर्म के संाझेदार हैं।

संस्कार और मूल्यों के कोई बातें मूल्यवान नहीं होती। ये परिवार, समाज और देश की आबो हवा में घुले होते हैं जिन्हें बच्चे आक्सीजऩ की तरह हर पल ग्रहण करते हैं। हवा जितनी सशक्त होगी, उतनी ही सशक्त नई पीढ़ी का जन्म होगा। बुज़ुर्ग पीढ़ी के जि़म्मेदार लोग तो सदियों से मुल्यों के संवाहक बने हैं, गल्ती दूसरी पीढ़ी के व्यस्क अभिभावकों से हो रही है जो एकल परिवारों के रहते कभी नौकरी का दबाव, कभी समयाभाव, कभी गृहस्थ जीवन की आपाधापी, मीडिया, सिनेमा, कम्पीटीशन जैसे कारणों का हवाला देकर सबसे अहम जि़म्मेवारी की उपेक्षा कर रहे हैं और वह है पारिवारिक मूल्य और उससे जुड़ा बचपन।

“कैसे पहचानी मैंने बोलो अपने पराये की सीमा
किससे सीखा मैंने झूठ, फरेब का करिश्मा
जब जब चाहा मैंने तुमको, पाया सिर्फ खिलौना
तुम्हारी शानो-शौकत ने किया इस कदर मुझे बौना
मैं आज भी उतना मासूम हूं, उतना ही निष्छल
छिनता जा रहा क्यों मेरा बचपन हर क्षण हर पल”

आज की भागदौड़ भरी जि़न्दगी में कई बार ऐसा नहीं लगता कि हम झूठ के तवे पर अज्ञानता से आक्रोश की रोटी सेंक रहे हैं, प्रतिस्पर्धा की थाली में अधीरता से खा रहे हैं। डर पी रहे हैं, अन्याय ओढ़ रहे हैं, असंतोष पहन रहे हैं, जो जाने अनजाने हम भावी पीढ़ी को विरासत में भी दे रहे हैं। इसीलिए जरूरी है कि हम पहले अपने मन को नया, ताजा, उर्जावान भोजन दें। हममें से अधिकतर का अपने बच्चों के लिये लक्ष्य एक अच्छी नौकरी या सफल बिजनेस, पैसा व समृद्धि से पाई समाज में प्रतिष्ठा तक ही सीमित होता है। संजीदा युवाओं के लिए माता-पिता ने उनके लालन पालन व पढ़ाई में जितना खर्च उठाया, अपनी कमाई से उसे लौटा पाना ही अंतिम ध्येय हो जाता है। इस सारे उपक्रम में उपजे माहौल से हमारे बच्चों की सोच जटिल हो जाती है कि यदि उनके पास पैसा या बुद्धि है तो उनका व्यवहार या आचरण मायने नहीं रखते और फिर एक वक्त ऐसा आता है कि इन ऐम्पावरड बच्चों की जीवनशैली से तनावग्रस्त हो माता-पिता धर्म, शास्त्र, पूजा, योग और न जाने क्या-क्या प्रयास मन की शान्ति के लिए करते हैं।

20वीं सदी की उल्लेखनीय उपलब्धियों में से एक यह भी है कि हमने अपने बच्चों को समय से पहले बड़ा बना दिया है। उनके चेहरे पर मासूमियत की चमक फीकी पड़ती जा रही है। जीवनशैली को बेहतर बनाने की कभी न खत्म होने वाली दौड़ में शामिल, हम अपने बच्चे को वह सब उपलब्ध करवाने पर केंद्रित हैं जो यह सुनिश्चित करने में सहायक हो कि वह बाकी साथियों सें पीछे नहीं, अपने समय के साथ चलता आधुनिक बच्चा है। एक ओर उनके सामने भ्रमित करता सूचनाओं, विज्ञापनों व उपलब्धियों का आतंक है तो दूसरी ओर अभिभावकों की अपेक्षाओं की लम्बी कतार। स्कूल, ट्यूशन, होमवर्क, परीक्षाएं, साथ में खेलकूद, पाठ्यक्रम के बाहर की गतिविधियां, टेलीविजन, इन्टरनेट… सूची अंतहीन है। इस कोशिश में उसके आगे सूचनाओं का भंडार खुला पड़ा है जिस तक पहुंचने के लिये एक बटन भर का ही फासला है। आज एक बच्चा उतना व्यस्त है जितने कि हम और आप और दुर्भाग्यवश हम सब इसे चाइल्ड ऐम्पावरमेन्ट मानकर स्वयं को तसल्ली दिये हुये हैं। हमारा दायित्व है यह देखना कि वे किस माहौल में बड़े हो रहे हैं।

हमारे सामने हमारी मंजूरी से ही हमारे बच्चों की मासूमियत की छुट्टी हो रही है और हम बड़े इसे सशक्तिकरण यानि कि ऐम्पावरमेन्ट का प्रगति चिन्ह जानकर अपने अंदर के डर व चिन्ता का लगातार दमन किये जा रहे हैं।

बच्चे को उपलब्ध वर्तमान परिवेश दरअसल अभिभावक की भूमिका को और सशक्त करने की ओर इशारा कर रहा है। बाजार, मनोरंजन और मीडिया के इस आक्रमण के प्रभाव से बचने के लिये जिस ढाल की जरूरत है वह है, अभिभावक यानि कि हम और आप सब। अपने बच्चे को आज के माहौल से पूरी तरह अछूता रख पाना नि:संदेह संभव नहीं है लेकिन उसके नकारात्मक प्रभाव को रोकने तथा तकनीकी प्रगति, कम्पीटीशन व हमारी अपेक्षाओं से भरी आंधी का सामना करने के लिये उसे हमारे नजदीकी मार्गदर्शन की जरूरत है। बच्चों के साथ अधिक से अधिक समय बिताकर उनकी उम्र के अनुसार संवाद बढ़ाना व अपने व्यवहार में एक सकारात्मक संतुलन बनाये रखना अति आवश्यक है।

हर अभिभावक का बच्चे के सशक्तिकरण में किये गये प्रयासों में इस बात के लिये सहमत होना महत्वपूर्ण है कि वे अपने बच्चों को नेक इन्सान बनाने की कोशिश करें- ज्ञानवान और परिश्रमी इन्सान बनाने की। अध्यापक को, जो कि बच्चों के सीखने और ज्ञान की दुनिया का झरोखा होता है, उसमें रचनात्मकता के संस्कार डालने के लिये आदर्श बनना होगा। अभिभावक, अध्यापक व विकसित होते बच्चों का यह त्रिकोण ही वह आदर्श बना सकता है जिससे सभी के सपनों के भारत का सक्षम युवा तैयार होगा। आज ज्ञान, विज्ञान, कैरियर व उपलब्धियों के नये-नये आयाम हासिल करने के लिये भले ही उच्चस्तरीय शैक्षणिक व ट्रेनिंग संस्थान खुल रहे हैं व अपने बच्चों के उचित विकास के लिये व बदलते दौर के कम्पीटीशन को समझते हुये माता-पिता बेझिझक अपने सामथ्र्य से बढक़र पैसा खर्च कर रहे हैं। लेकिन शिक्षा को भेड़चाल से नहीं, अपने बच्चे के सामथ्र्य व प्रतिभा के आधार पर चुनना होगा। आज बच्चे को केवल किताबी ज्ञान ही नहीं, व्यावहारिक व सामाजिक प्रयोगशाला की भी जरूरत है। केवल डिग्री या नौकरी पा लेने तक सीमित शिक्षा भविष्य नहीं संवार पाती और इसके लिये हमारे ऐजूकेशनल सिस्टम में बेहतरीन बदलाव की आवश्यकता है। केवल घर में ही नहीं, भारतवासी होने के नाते हमें अपने बच्चों में यह विश्वास जगाना होगा कि भारत के पास खुद को विकसित राष्ट्र के रूप में बदलने की क्षमता मौजूद है और उनका भविष्य सुरक्षित है।

हर कदम पर हमें यह याद रखना है कि बचपन एक ऐसी अवस्था है जिसमें बच्चे एक बंदर की भान्ति नकलची होते हैं और आसपास के माहौल का अन्धा अनुकरण करते है। इसीलिये नैतिकता और संस्कार बताकर, पढ़ाकर, उपदेषों से सिखाकर या सख्ती से समझाकर इतना नहीं सिखाये जा सकते जितना एक उदाहरण बनकर दिखाये जा सकते हैं। निर्माण के आधुनिक युग में यह चैक करना सबसे जरूरी है कि क्या नींव मजबूत है? नये समय में बच्चों में नये विषयों व क्षेत्रों में ज्ञान अर्जन का झुकाव बढ़ा व अवसर भी। लेकिन फिर भी नई पीढ़ी से जुड़ी कई चिन्तायें हमें आज भी घेरे हैं, क्यों? कहीं हमें खुद को जांचने, बदलने या अपने प्रयासों को परखने की जरूरत तो नहीं? क्योंकि हम सब मानते हैं ना कि ये बच्चे एक सुच्ची कच्ची मिट्टी जैसे हैं जिसे हम बड़े जैसे चाहे सांचे में ढाल लें। और हमारी कारीगरी ही यह तय करती है कि भविष्य में यह बर्तन कैसा होगा?

सो जैसा हम अपने बच्चों का भविष्य बनाना चाहते हैं, आईये उन्हें उससे बेहतर वर्तमान दें और इसकी शुरुआत हम अपने से करें यानि कि खुद में बदलाव और बच्चों के समक्ष एक मिसाल बनकर न कि उन्हें अपने सांचे में ढालने के प्रयास करके।

 Career Counsellor Sween Saini

स्वीन सैनी, कैरियर काउन्सलर, नाइस कम्पयूटरज़
होशियारपुर-9417804547

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