होशियारपुर (द स्टैलर न्यूज़),रिपोर्ट: गुरजीत सोनू। संसार की एक बड़ी आत्मिक पूंजी रखने वाला मेरे सपनों का स्वतंत्र भारत सचमुच एक वैष्विक मानव-पूंजी वाला राष्ट्र रहा है, जिसकी महाधारा में सदियों से संसार की हर नस्ल और धर्म समन्वित हुए हैं। हर मुल्क के इतिहास में स्वर्णिम व कालिमा से घिरे हर तरह के अध्याय छिपे रहते हैं और कुछ ऐसी ही मेरी भावनाए स्वतंत्रता दिवस के साथ भी जुड़ी हैं। आज तक मैं यह नहीं समझ पाई कि यह खुशियां मनाने का दिन है या इस आज़ादी की लड़ाई में मची तबाही से खो गईं अनेकों जिंदगियों के लिये रोने का। बचपन से हम खुशी मनाते रहे कि अंग्रेज़ चले गए और जैसा हमें पढ़ाया गया कि भारतमाता गुलामी की बेडिय़ों से आज़ाद हो गईं।
उक्त बातों का प्रगटावा करते हुए नाईस कंप्यूटरज की स्वीन सैनी ने कहा कि लेकिन जैसे जैसे उम्र और अनुभव बढ़े तो समझ आने लगी कि आज़ादी के लिए दी गई कुर्बानियों से जहां देश को कुंदन बनकर निकलना था वहां देश क्रंदन बनकर उभरा। इस मां के सीने पर विभाजन की आरी चलाकर परायों से मुक्त कराने की आड़ में अपनों के हाथों ही बेच डाला गया और खुद उसी अंग्रेज़ी सभ्यता के पीछे पीछे चले गए। तब तो सब मजबूरी वश न चाहते हुये विभाजित, विस्थापित और निराश्रित हुए थे लेकिन आज तक हम स्वयं अपने जीवन का यही चुनाव करते आ रहे हैं। दूसरी ओर दस लाख से कहीं ज़्यादा अपनी ही जनसंख्या का कत्ले-आम कर लाशों की लकीरें बिछाकर दिवारे-सरहद खड़ी करके बंटवारे को हम दो देशों में जश्ने-आज़ादी की तरह मनाते आ रहे हैं।
सियासी हठ और जनूनी भीड़ ने महात्मा के सत्याग्रह को सियासी जामा पहनाते हुए सत्य, अहिंसा और भाईचारे को स्वाहा कर सौहार्द का जनाज़ा निकाला और दोनों तरफ के आवाम ने फिर भी इस छल भरी झूठी, खंडित अधूरी आज़ादी को गले लगाया। अपने जान, माल और जज़्बे के नुकसान को नजऱअंदाज़ कर सियासतगरों को दोड्ढ मुक्त कर एक नये विष्वास के साथ व्यथित पर तथाकथित आज़ाद भारत में अपने जीवन की जद्दोजहद में जुट गये। इन 71 वर्षों में विस्थापितजन का भारत की औद्योगिक एंव सांस्कृतिक क्रान्ति में बहुत बड़ा योगदान है। लेकिन राजनैतिक आडम्बरों और षडय़ंत्रों के साये में आंतरिक विभाजनों का खेल लगातार चलता रहा और देषवासी धीरे-धीरे उसी धीमी आग में सुलगते ही चले गये।
संतुलित दिमाग से और बिना राजनैतिक दबाव के कोई इंसान सोचे तो देख पाएंगे कि आज के भारत की भी हुबहू वही स्थिति है। मौजूदा दौर में भी अपने ही देष का धर्म व जाति के नाम पर इतना बड़ा आन्तरिक विभाजन देखकर मन विचलित होकर सोचता है कि देष तब विकसित था या अब पिछड़ा है? जय जवान जय किसान के नारे से प्रफुल्लित आज़ादी के 71वें साल में वोटों की सरहदों से बँटा आज़ाद हिन्दुस्तान अपने यौवन को बिना देखे कमर झुकाये बैठा देख रहा है- भ्रष्टाचारी दरिंदे मेहनतकशों के छलछलाते खून से अपनी लालसा के कटोरे भर रहे हैं। भ्रष्टाचार-विरोधी संस्थायें व पार्टियाँ भ्रष्टाचार ढूंढने का अनथक प्रयास करती हैं, पर जनता को दिखाई नहीं देता क्योंकि वह उनके चारों ओर टिडढी दल सा व्यापत है और वह उसकी अभ्यस्त भी है।
स्वीन सैनी ने कहा कि राष्ट्र और व्यक्ति का स्वार्थ तराजू में तोलने पर राष्ट्रीयता का पलड़ा देखने में तो ऊपर नजऱ आता है क्योंकि राष्ट्र अकेला है, हल्का है और भारतवासी का स्वार्थ वजऩदार है। जैसे क्रिकेट के चक्के छक्कों की टकाटक में दीवानी हुई जनता की जेब वे सब काटते हैं जिनको क्रिकेट के बढ़ते हुये रनों की संख्या से कोई लगाव नहीं, उनकी सेंचुरी तो बैंक बैलेंस से अंकित होती है। ठीक इसी तरह ढकोसली राजनेताओं के खोखले राष्ट्रप्रेम के प्रपंचों में घिरी जनता की ना केवल जेब बल्कि देषभक्ति भी नित्य लुट हो रही है। अपनी भारत माँ को आन्तरिक गद्दारों से बचाने की बजाय और इस प्रपंच को समझ बूझकर इसके खिलाफ एकजुट होने की बजाय इसे छोडक़र अपनी भावी-पीढ़ी को विदेशी मोहपाश में सुरक्षित करने का जो दौर चल निकला है, हमारे भारत के भविष्य के लिए बड़ा खतरा है।
क्योंकि भले ही लाख आँख मूंदे, मगर हम जानते हैं कि एक ओर अपने ही राजनेता देष के सुरक्षाबलों और सैनिक वीरों का मनोबल धीरे धीरे तोडक़र बाहरी शत्रुओं की राह आसान कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर पश्चिीमी देष अलग अलग तरीके से नई उभरती पीढ़ी को अपनी ओर आकर्षित कर अंदरूनी ताकत पर वार कर रहे हैं। और हम इसे ग्लोबल स्तर पर अपनी जीत मानकर विकास की खोखली तूती बजा रहे हैं। याद रहे स्वतंत्रता के महायुद्ध के दौरान हर जाति, धर्म व कुनबे के हर बलिदान को भूल जाने वाली भारतीय जनता को इस नशीली नींद से जागना होगा और इन सवालों पर गौर करना होगा। डींगें हांकने से और भाषण फांकने से कुछ नहीं होगा। अब जन-जागरण ही निहित स्वार्थों की राजनीति का विकल्प बन सकेगा। अगर ऐसा ना हुआ तो वह भारत जो हज़ारों साल तक अपनी आंतरिक उर्जा के बल पर बचा रहा, पहली बार इतिहास में एक ऐसे संकट से गुजऱेगा, जो उसे विखंडन की ढलान पर खड़ा कर देगा। ठीक उसी गरीब मां की तरह जिसकी सुध विदेश में बसे विकासशील अमीर बेटे ने नहीं ली और वो अकेली उसकी राह देखती तड़प तड़पकर कंकाल बन गई।
आज़ादी मुबारक कहने से पहले हर भारतवासी को यह ध्यान देना अनिवार्य है कि 71 साल के आज़ाद भारत की भावी पीढ़ी को हम स्वयं पाल पोसकर विदेशों में गुलामी करने भेज रहे हैं जबकि दम तोड़ते एतिहासिक भारत को अपने युवाओं द्वारा निर्मित एक नया समाज, एक नयी दिशा, और नया जीवन चाहिये। जिसके लिये ज़रूरी शर्त यह है कि वर्तमान को घेरे हुए सभी तरह के सड़े गले दमघोटू राजनीतिक विचारों का संपूर्ण ध्वंस हो और नफरतों से परे एकजुट नया समाज संरचित हो, जो नई मानसिकता के साथ नई उर्जा को जन्म दे सके, जिसमें नई नस्लें खुली सांस लेकर सचमुच स्वयं का व देश का समुचित विकास कर सकें।