वर्दी वाला गुं…: जनाब को पनीर-कचौरी पसंद है, करियाना-बेकरी दबके से ले जाएं

इन दिनों प्रदेश में करफ्यू लगाए जाने के कारण पुलिस के पास लॉ एंड आर्डर बनाए रखने एवं सरकार के आदेशों की पालना करवाने की जिम्मेदारी सबसे अधिक है। एक तरफ जहां अधिकतर पुलिस कर्मी पूरी ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभा रहे हैं तो दूसरी तरफ कुछेक ऐसे भी हैं जो आदेशों की अनदेखी खुलने वाली दुकानों या देर तक खुली रहने वाली दुकानों पर जाकर दुकानदार को कानून का पाठ पढ़ाने की जगह अपनी जेबें गर्म करने में लगे हैं। होशियारपुर शहर की बात करें तो एक थाने में तैनात यह साहब अपने बड़े साहब की शतरछाया में वर्दी को दागदार करने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे। जनाब को नियमों के विपरीत खुली दुकानें तो खुली दिख जाती हैं, मगर दुकानदार को कानून का पाठ पढ़ाने व उसे समझाकर आगे से दुकान खोलने की गुड़ती देने के साथ-साथ जनाब दुकानदार से सामान लेना नहीं भूलते। अब वर्दी वाले साहिब हैं तो पैसे. . . इसकी बात मत करो। हाल ही की बात है कि जनाब को एक कचौरी वाले की दुकान खुली दिखी। फिर क्या था नियमो के विपरीत दुकान खुली थी और फिर क्या साहब पहुंच गए कि तेरे खिलाफ पर्चा दे दूंगा। दुकानदार ने कहा कि वे तो दुकान चैक करने आया था और घर के लिए ही बना रहा है, उसने सामान बेचने के लिए नहीं बनाया है, कुछ सामान बेच भी दिया होगा, लोग कौन सा सारा सच ही बोलते हैं। लेकिन दुकान तो नियमों के विपरीत खुली थी। फिर क्या था जनाब ने दुकानदार को ऐसा दबका लगाया कि कचौरी का स्वाद चखा और पैक करवाकर कचौरियां लेकर चलते बनें।

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इतना ही नहीं एक दूध, दहीं व पनीर का काम करने वाले की दुकान खुली थी, तो वर्दीधारी जनाब वहां भी पहुंच गए। दुकानदार ने कहा कि आदेशानुसार उसने दूध बेचने के लिए दुकान खोली है, क्योंकि उसके बाध बांधें लगी हुई हैं, लोग दूध ले जाएं, वे बंद कर देगा। लेकिन जनाब के सिर पर वर्दी का जादू जो बोल रहा था तो जितना पनीर हाथ में आया, जनाब ने उठाया और उसे नसीहत देकर चलते बने। अब जनाब को करियाना का सामान भी अति प्रिय होता होगा जो होन डिलीवरी में लगे करियाना स्टोरों पर पहुंचकर उनका शटर खुले होने की बात कहकर कभी राशन तो कभी चटपटे मन को रिझाने के लिए जो सामान चाहिए दबका मारकर गाड़ी में रखवाने में मास्टरी कर चुके जनाब को लेना खूब आता है। इतना ही नहीं बेकरी की दुकानें बंद होने के बावजूद जनाब को बेकरी का सारा सामान चाहिए और वे भी बिना पैसे की। फिर वही बात वर्दी पहनी हो, करफ्यू में ड्यूटी हो तथा साहिब का आशीर्वाद हो तो पैसे तो देने का सवाल ही पैदा नहीं होता। कभी कचौरी, कभी टिक्की, कभी पूड़ी, कभी बेकरी का सामान तो कभी करियाना जब दबका व कानून का डल दिखाकर मिलता हो तो वर्दीधारी जनाब को ताकत का गुमान होना तो लाज़मी है। यह भी सुना है कि नई-नई तरक्की पाए यह जनाब अपने बड़े साहब के बहुत करीब हैं और साहिब को भी सामान मिल जाता होगा तो उनका आशीर्वाद देना तो स्वभाविक है।

इतना शुक्र है कि जिन जगहों से इस जनाब ने सामान लिया उन्होंने इसकी सी.सी.टी.वी. फुटेज को लीक नहीं किया, वर्ना थाना सदर में तैनात गुलजार सिंह की तरह ही समाचारपत्रों और चैनलों पर जनाब की तस्वीर के साथ इनकी खबर खूब चर्चा में होती। लेकिन भगवान का शुक्र रहा कि शायद वे इसे एक मौका और देना चाहते हैं कि सुधर जाओ वर्ना बड़े अधिकारियों के प्रकोप से तुम्हें कोई नहीं बचा सकता। जनाब की हरकतों को देखते हुए अगर यह कहा जाए कि “जनाब को पनीर-कचौरी पसंद है, करियाना-बेकरी दबके से ले जाएं” तो कुछ गलत नहीं होगा तथा इन दिनों इनकी हरकतें काफी चर्चा का विषय बनी हुई हैं कि एक तरफ पुलिस विभाग अपनी कार्यप्रणाली के चलते लोगों के दिलों में एक अलग ही जगह बनाने में कामयाब हुआ है और दूसरी तरफ ऐसी काली भेड़ें बड़े अधिकारियों और ईमानदारी व निष्ठा से अपने कर्तव्य का निर्वाह कर रहे कर्मियों की मेहनत पर पानी फेरने से बाज नहीं आ रहे। शहर में चर्चा है कि शहर के होते हुए शहर के न हुए तो और मानवता की सेवा न की तो इतनी मेहनत और किस्मत से मिली वर्दी पहनने का ऐसा व्यक्ति को कोई हक नहीं है। इसमें गलती लोगों की भी है कि जिन दुकानों को खोलने की आज्ञा नहीं है वे उन्हें क्यों खोलते हैं। परन्तु कानून व्यवस्था व सरकार के आदेशों को लागू करवाने वाले पुलिसकर्मी अगर ऐसा व्यवहार करेंगे तो कानून व्यवस्था का चरमरा जाना आम बात है। अगर जनाब में ईमानदारी व वर्दी के प्रति वफादारी हो तो वे दुकानदार पर बिना किसी कार्यवाही के उसे समझाकर भी परिस्थितियों के प्रति जागरुक कर सकते हैं। अगर वे फिर भी नहीं समझता तो उसके खिलाफ कार्यवाही से भी पीछे नहीं हटना चाहिए। परन्तु कार्यवाही का डर दिखाकर अपनी जेबें और पेट भरना किसी भी सूरत में तर्कसंगत नहीं है।

क्या! फिर वही बात कि नाम बता दो। भाई कितनी बार कहा है कि नाम मत पूछा करो। हमारा मकसद किसी को बदनाम करना या उसकी नौकरी पर किसी तरह का संकट खड़ा करना नहीं होता। बल्कि इशारों की भाषा में उसे अपनी करतूतों से बाज आने का संकेत करना होता है। अगर कोई इशारा समझ जाए तो ठीक वर्ना बड़े अधिकारी एक दिन उसे ऐसा समझाते हैं कि वह न घर का रहता है और न ही घाट का। यह भी सच है कि शहर में रहते हुए शहरदारी निभानी पड़ती है और कई बात लिहाज करते हुए देख कर भी अनदेखा करना पड़़ता है। परन्तु वह भी एक हद तक ही ठीक रहता है। इसकी आड़ में जेब व पेट भरना किसी भी सूरत में तर्कसंगत नहीं है। अब देखना यह होगा कि जनाब समझते हैं या फिर अधिकारियों के समझाने का इंतजार करते हैं। यह तो समय ही बताएगा। क्या! कुछ तो क्लू दो. . न बाबा न. . घंटाघर. . . अब सारा कुछ मैं ही कहूं क्या। कुछ तो समझा करो। जय राम जी की।

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