कपूरथला (द स्टैलर न्यूज़), गौरव मढ़िया। गत दिवस दिव्य ज्योति जागृति संस्थान शाखा कपूरथला में साप्ताहिक सत्संग के दौरान श्री आशुतोष महाराज जी की शिष्या साध्वी जी ने कहा हमारे शास्त्र ग्रंथों में कहा गया प्रेम से बढ़कर दूजा कोई धर्म नही होता, प्रेम से सर्वोच्च कोई तप नहीं, प्रेम से बड़ा कोई ज्ञान नहीं और प्रेम के बिना परम गति संभव नहीं। यहां पर प्रश्न आता है कि जिस प्रेम की चर्चा ग्रंथ कर रहे है वो प्रेम सांसारिक है या आध्यात्मिक? क्योंकि अक्सर ही मानव प्रेम सांसारिक दृष्टि से ही देखने और समझने का प्रयास करता है। एक बार यही प्रश्न किसी जिज्ञासु भक्त ने श्री आशुतोष महाराज जी की समक्ष रखा कि महाराज जी महापुरोषों ने प्रेम को अमूल्य निधि कह कर संबोधित किया है, और संसार में यदि देखे तो प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी से तो प्रेम अवश्य करता है फिर उस प्रेम से यह धरती स्वर्ग तुल्य क्यों नहीं होती है? समाधान प्रदान करते हुए गुरुदेव ने कहा कि यह जिस प्रेम कभी भी सांसारिक हो ही नही सकता बल्कि जिस प्रेम की बात आप करते है वह तो प्रेम का विकृत रूप मोह है। प्रेम यदि शहद है तो मोह उसी शहद में यदि आप जहर मिला दो।
उदाहरण देते हुए समझाया संसार मानता था कि कंस को अपनी बहन देवकी से अत्यंत प्रेम करता था, सम्राट होते हुए भी अपनी बहन का सारथी बनना स्वीकार किया लेकिन जिस समय आकाशवाणी हुई की इसी देवकी की आठवीं संतान तुम्हारा काल होगी कंस। वही कंस अपनी उसी प्रिय बहन को मारने के लिए उद्धत हो गया। प्रेम के स्थान पर भय , रोष प्रकट हो गया और प्रेम तो कहीं पंख लगा कर उड़ गया। वास्तव में यह प्रेम था ही नही ते तो मोह था। यदि प्रेम होता तो विपरीत परिस्थिति में भी वह लेश मात्र परिवर्तित नहीं होता। इसलिए प्रेम सुधा है, अमृत है जिसका सीधा संबंध आत्मा और परमात्मा से है। अब प्रश्न है की यह प्रेम उत्पन्न कैसे होता है। तो उत्तर में ग्रंथ कहते हैं बिन गुरु प्रेम न उपजे। भाव बिना गुरु के प्रेम पैदा नहीं हो सकता।
जब गुरुदेव अपने शिष्य के घट अंतर में ईश्वर का दर्शन करवाते है तब ही हृदय भूमि पर प्रेम की कपोल पनपती हैं। एक गुरु ही है जो प्रेम लुटाते हैं और एक गुरु ही हैं जो प्रेम प्रकट कर सकते हैं।साध्वी जी ने भक्तों की उदाहरणों से स्पष्ट किया कि किस प्रकार भक्तों ने भावों से प्रेम के बंधन में प्रभु को बांधा और भक्ति धन को प्राप्त किया। अतः हम भी यह प्रेरणा प्राप्त करें कि ईश्वर को पाने की इच्छा है तो इस प्रेम को अपने घट भीतर पैदा करें और इसके लिए एक पूर्ण गुरु की शरणागत हो जाएं। साध्वी हरिप्रिता भारती जी ने भजनों का सामुधुर गायन कर उपस्थित श्रद्धालुओं को भाव विभोर कर दिया।