दुखों से बचने व जीवन को सुखी बनाने के लिए हमें सदा गुरु की शरण में रहना चाहिए:आचार्य चंद्रमोहन

होशियारपुर (द स्टैलर न्यूज़)। योग साधन आश्रम में रविवारीय सत्संग के दौरान ब्रह्मलीन सद्गुरुदेव चमन लाल कपूर की शिक्षाओं पर प्रकाश डालते हुए आश्रम के आचार्य चंद्रमोहन अरोड़ा ने बताया कि जीव की संसार में 2 योनियां होती हैं। पहली भोग जिसमें पशु पक्षी आते हैं वे केवल अपने पिछले कर्मों का भुगतान करने को आते हैं तथा कोई नया कर्म नहीं कर सकते। दूसरी कर्म योनि होती है जिसमें हम मनुष्य आते हैं। इस कर्म योनि में मनुष्य अपने पिछले जन्मों में किए कर्मों का भुगतान भी सुख-दुख सहकर करता रहता है तथा इस जन्म में नए कर्म भी करता रहता है। मनुष्य के कर्मों के आधार पर कर्म तीन प्रकार के होते हैं। प्रथम संचित कर्म, दूसरे प्रारब्ध कर्म तथा तीसरे क्रियमान कर्म । किसी भी जीव की चार चीजें हर जन्म में वही रहती हैं । मन, चित, बुद्धि तथा आत्मा। इन चारों को सूक्ष्म शरीर कहते हैं ।

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अगले जन्म में हमारा शरीर, नाम, शक्ल बदलती है। परंतु सूक्ष्म शरीर हर जन्म में वही रहता है। मन तथा चित में वही भेद होता है जो समुंदर की सतह पर तथा उसकी धरातल में होता है। ईश्वर ने हमें इस जन्म में कर्म योनि में कर्म करने की पूर्ण स्वतंत्रता दी है । हम जैसे चाहे अच्छे या बुरे पुण्य अथवा पाप कर्म करें ईश्वर हमारे कर्मों में हस्तक्षेप नहीं करता। परंतु उसने एक अटल सिद्धांत बना दिया है कि जैसे कर्म करो वैसा फल भी भोगो।

हमारी पांच ज्ञान इंद्रियां व पांच कर्मेंद्रियां सांसारिक वस्तुओं के प्रलोभन से अस्थाई सुख पाने के लिए मन से शुभ व अशुभ कर्म करवा देती है। मन के पास विकल्प होता है कि वह कैसे कर्म करें इसे क्रियमान कर्म कहते हैं । जब हम मन द्वारा पाप कर्म कर डालते हैं उस समय उससे मिलने वाले दुखों से अनभिज्ञ होते हैं । जब मनुष्य कर्म कर डालता है वह चित पर जाकर अंकित हो जाते हैं । चित पर जमा हुए इन कर्मों को संचित कर्म कहते हैं। क्योंकि किसी एक मनुष्य का मन तथा चित हर जन्म में वही रहता है इसलिए हर मनुष्य के चित पर अनेकों जन्मों से इक_ी की संचित कर्मों की न खत्म होने वाली पूंजी होती है। इनको हम संस्कार कहते हैं । जो हमारी आदत के रूप में हर जन्म हमारे साथ रहते हैं । कई बार हम कुछ पाप कर्म नहीं भी करना चाहते पर फिर भी हमसे हो जाते हैं। वह इन संस्कारों के कारण ही होता है ।

इस पूंजी में हमारे पास पुण्य और पाप कर्म दोनों ही होते हैं । ईश्वर हमारे संचित कर्मों के भंडार में से शुभ व अशुभ कर्मों के अनुपात अनुसार कुछ कर्मों को इस जन्म में हमें देकर अथवा लिखकर हमारा जन्म बनाता है। ईश्वर न्याय कारी है वह अपने सिद्धांत पर अटल रहता है। पाप का फल दुख प्राप्त होता है माफी अथवा दया वाली कोई गुंजाइश नहीं होती। परंतु गुरु का स्थान ईश्वर से ऊपर है। इन दुखों से बचने के लिए तथा जीवन को सुखी बनाने के लिए हमें सदा गुरु की शरण में रहना चाहिए। गुरु ईश्वर से भी शक्तिशाली है और उसका किया ईश्वर भी नहीं मिटा सकता । गुरु तीन तरह से शिष्य पर कृपा करता है सर्वप्रथम शिष्य को पुराने पापों का दुख भोगते समय साथ रहकर शक्ति प्रदान करता है। दूसरा बहुत से ज्ञान देकर शुभ मार्ग दिखाता है तथा पाप कर्मों को करने से रोकता है । तीसरा जब कोई गुरु का प्रिय शिष्य दुखों से हताश होकर गिड़गिड़ाता है तो गुरु दया कर शिष्य का प्रारब्ध भी बदल देते हैं ।दुखों से बचने के लिए व जीवन को सुखी बनाने के लिए हमें सदा गुरु की शरण में रहना चाहिए:आचार्य चंद्रमोहन

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