नारी सशक्तिकरण में खुद नारी को कड़े कदम उठाने की जरूरत: स्वीन सैनी

होशियारपुर (द स्टैलर न्यूज़),रिपोर्ट: मुक्ता वालिया। इंटरनेशनल वुमन डे-औरत के वजूद की याद दिलाने या उसके अस्तित्व का जश्न मनाने के सबब से रखा गया साल का वो एक दिन है जो खुद उसके अस्तित्व की तरह हमेशा दुविधापूर्वक सवालों से घिरा रहा है कि क्या सच में एक ही दिन काफी है सृष्टि की सरंचना और पालन-पोषण में बराबर की भागीदारी निभाने वाली नारी को सम्मानित करने के लिए।

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लेकिन मेरे विचार से इन बेवजूद बहसों से खोखले भाषणों से इस दिन का मकसद ज़ाया करने की बजाय क्यूं न आत्म-मंथन के ज़रिये इस संदर्भ में ज़रूरी अन-छुए मुद्दों पर एक विचारपूर्ण जागरूकता की जाए। जब भी वूमेन इंपावरमेन्ट की बात होती है, तो लगता है कि जैसे सदियों से पीडि़त और शोषित हो रही नारी के उद्धार का अभी-अभी आह्वान हुआ हो। मगर यथार्थ में ऐसा नहीं है, क्योंकि इतिहास गवाह है कि हर युग के दौर में अगर वो कु-प्रथाओं का शिकार रही है तो उसके दबंग और सशक्त उदाहरण भी कम नहीं है।

महिला दिवस-आत्म-मंथन के बिगुल बजाने का वक्त

उसे हालातों के ये दोनों पहिए तब से अब तक एक साथ चल रहे हैं। 1950 के दशक में ही नारी की स्वछंदता को दर्शाता एक गीत लिखा गया था, पंछी बनूं, उड़ती फिरूं मस्त गगन में, आज मैं आज़ाद हूं दुनिया के चमन में, तो उस पर होने वाले शारीरिक, मानसिक व आर्थिक अत्याचारों के किस्से आज भी अनगिनित हैं। निसंदेह बदलते वक्त के आधुनिक दौर में बेशक एक बड़ा बदलाव आया है जिसने औरत के अस्तित्व के साथ समाज में उसके रोल को भी उम्दा रूप से जग जाहिर किया है, लेकिन बहुतेरे पहलुओं में परेशनियां अभी भी ज्यूं की त्यूं ही हैं। जिसका सबसे अहम कारण है औरत के बारे में हमारी मानसिकता और यह मैं केवल मर्दों के बारे में नहीं कह रही, एक औरत के दूसरी औरत के बारे में नज़रिए पर और भी ज़्यादा गौर करना है क्योंकि इस शोषण में यह अहम भूमिका निभा रही है।

जब तक इस बारे में केवल मर्द जाति ही नहीं बल्कि हर इंसान की सामूहिक सोच और नज़रिया नहीं बदलता, तब तक सामाजिक स्तर पर सम्पूर्ण बदलाव नामुमकिन है। उन्होंने कहा कि मेरा मानना है कि हर उम्र की हर स्त्री का केवल अपने अधिकारों के बारे में जागरूक होना ही नहीं दूसरी स्त्री के लिए संवेदनशील होना भी उतना ही आवश्यक है। क्योंकि समाज की इस बुराई का केवल मर्दों पर दोष लगाकर हम अन्य पहलूओं से मुक्त नहीं हो सकते। कई बार नारी की गैरत, अहमियत और अस्तित्व को बार किसी दूसरी औरत से ही ज़बरदस्त खतरा होता है। परस्पर प्रतिस्पर्धा तक तो ठीक है लेकिन परिवारों में, सामाजिक संगठनों और कार्य स्थलों में परस्पर ईष्या और क्लेश के चलते लांछनों और अन्याय के उदाहरण भी हम सबसे छिपे नहीं हैं।

इस दौर के बदलाव में जितनी स्वछंदता, सुविधाएं और अवसर हमें मिले हैं या हम अपनी युवा बेटियों को देने में तत्पर हैं, उन्हीं में से इनका नाजायज़ फायदा उठा कर परिवारों को शर्मसार करने के किस्से भी कम नहीं हैं। उन्होंने कहा कि औरत की प्रतिभा, ताकत व उपलब्धियों को अहमियत न देकर केवल उसकी शारीरिक सुन्दरता को ही उसके वजूद का मापदण्ड मानने पर हमें आपत्ति है, बिल्कुल होनी चाहिये। लेकिन जो सिनेमा और सोशल मीडिया हमेशा ही हमारे समाज का प्रतिबिम्ब रहे हैं, वहीं मनोरंजन और विज्ञापनों के नाम पर स्त्री के सिर्फ जिस्म और चंचलता की फूहड़ प्रदर्शनी हम बेहिचक झेल रही हैं। रिश्तों के तराजू पर हम खुद की काबलियत व अच्छे स्वभाव की अहमियत को दरकार रखती हैं लेकिन किसी दूसरी लडक़ी को बहू के रूप में देखने से पहले हम उसे हुस्न की शिद्दत और सेवा की मूरत में फिट करने की चाह रखती हैं।

हर औरत खुद पर हुए अत्याचारों का बखान तो बखूबी कर लेती है मगर उसी सिलसिले में खुद की भागेदारी से सदा अनजान बने रहने की कोशिश करती है। उन्होंने कहा कि लिंग भेद से आहत हर औरत बेटे की मां बनते ही इस भेदभाव का अहम हिस्सा जाने-अनजाने में बन जाती है और उसी के हाथों उसी की जाति आहत, तिरस्कृत होती चली जाती है। प्यार करने वाले पति और परवाह करने वाली सास की आस रखने वाली बहू जब उन्हें अपना हथियार बना कर इस्तेमाल करती है तो दूसरों के लिए क्या उदाहरण रखती है। उन्होंने कहा कि अहम रिश्तों को मांगों का व्यापार बना कर परिवारों में अशान्ति और बंटवारे का रोल हर युग की कैकेयी करती आ रही है जिसका दोष हम केवल दशरथ या राम पर ही मढ़ते आ रहे है।

विभिन्न मंचों से अनेकों घिसे-पिटे व्याख्यान देकर नाम बटोरने या अपने लिए हर वक्त भीख मांगने की बजाय नारी सशक्तिकरण की दिशा में कुछ प्रैक्टीकल कदम खुद नारी को ही उठाने की जरूरत है। मुझे गर्व है कि पिछड़े इलाकों से लेकर बड़े शहरों तक अनेकों महिलाएं प्रतिकूल परिस्थितियों में भी यह जि़म्मेवारी बखूबी निभा रही हैं, लेकिन अभी भी हमें एकजुट होकर अनेकों प्रयासों की दरकार है। हर सशक्त व जागरूक नारी कमतर के विकास व आत्मविश्वास के लिए मन से प्रयासरत हों और जहां ज़रूरत हो, अनदेखा न कर इन मुद्दों पर ध्यान दिलाएं व निरीह, निर्बल और शोषितों की ताकत बनना ही हमारा परम धर्म होना चाहिए।

हमें याद रखना है कि हर विकास व बदलाव की डगर टकराव से नहीं एकता व समन्व्यता से हो कर जाती है उन्होंने कहा कि अगर ऐसा हुआ तो हर दिन इस जमीं पर नारी सशक्तिकरण की ऐसी होगी दास्तां, जिसकी मिसाल देगा हर आसमां।

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