पंजाब में चार विधानसभा सीटों पर होने जा रहे उपचुनाव के चलते सभी सीटों पर राजनीतिक पार्टियों द्वारा अपने-अपने प्रत्याशी के पक्ष में चुनाव प्रचार तेजी से किया जा रहा है तथा इनमें सबसे हॉट सीट हलका चब्बेवाल की मानी जा रही है। इसी के चलते मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान दो बार यहां आ चुके हैं। चर्चा है कि या तो सरकार को इस सीट पर जीत का पूर्ण विश्वास है या फिर किसी तरह के रिस्क फैक्टर को खत्म करने के लिए मुख्यमंत्री खुद इस सीट पर नज़रें गढ़ाए हुए हैं। हालांकि चुनाव का बिगुल बजते ही इस सीट पर सत्तापक्ष यानि आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार डा. इशांक चब्बेवाल की जीत सुनिश्चित मानी जा रही थी तथा जैसे-जैसे अन्य पार्टियों ने अपने उम्मीदवार के पक्ष में चुनाव प्रचार शुरु किया वैसे-वैसे जीत के मायने तथा कयासों में लगाया जा रहा जीत का आंकड़ा भी बदलने लगा है। पर जीत के लिए सत्तापक्ष द्वारा हलके में ग्रांटों की झड़ी लगा दी गई और खुद मुख्यमंत्री का आना जनता में विशेष प्रभाव तो छोड़ता ही है, साथ ही उनके द्वारा पुनः दोहराए गए वायदे क्या रंग लाते हैं यह भी आने वाला समय ही बताएगा।
स्टैलर चुटकी
राजनीतिक गलियारों में चर्चाओं का बाजार कई प्रकार की चर्चाओं से पूरी तरह से गर्म है। ताजा चर्चा के अनुसार पहले तो यह माना जा रहा था कि चब्बेवाल से डा. इशांक 40 हजार से ऊपर की लीड प्राप्त करके रिकार्ड कायम कर सकते हैं तथा इसके बाद यह आंकड़ा 20-25 हजार तक आ गया तथा चुनाव की तारीख में बदलाव के साथ ही अब यह आंकड़ा 10-20 हजार के बीच सिमटता हुआ चर्चाओं में है तथा कई राजनीतिक माहिरों के अनुसार सत्तापक्ष के लिए इस समय जीत इतनी भी आसान नहीं रही, क्योंकि कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने अपने प्रत्याशी एडवोकेट रणजीत कुमार किट्टी के पक्ष में चुनाव प्रचार तेज कर दिया गया है और उन्होंने दावा किया है कि उन्हें भी गांवों में भारी जनसमर्थन मिल रहा है और लोग परिवारवाद की राजनीति को कहीं न कहीं नकारते हुए उनके साथ जाने का मन बनाए बैठे हैं। इसके अलावा भाजपा भी अपना आधार बढ़ाने के लिए एडी चोटी का जोर लगाने में जुट गई है तथा सोहन सिंह ठंडल का अपना रसूख भी इस जीत की राह में रोड़े अटकाने का काम कर सकता है और उन्होंने भी अपने कद के हिसाब से चुनाव में बाजी मारने की राह खोजते हुए गुप्त गणनीति के तहत काम करना शुरु कर दिया है। जिस कारण सत्तापक्ष को आम चुनाव से अधिक जोर लगाना पड़ रहा है। हालांकि सत्तापक्ष को सरकार का लाभ भी मिलना तय है, लेकिन फिर भी चुनावी रण में बदले मिजाज से सरकार एवं सरकारी तंत्र से मनवांछित लाभ मिलने पर भी सवाल खड़े होने लगे हैं।
चर्चाओं में भले ही अंदरखाते फ्रैंडली मैच ही क्यों न चल रहा हो, लेकिन लोकदिखावे के चलते राजनीतिक पार्टियों द्वारा चुनाव प्रचार जीत के लिए ही किया जा रहा है और इस प्रचार में कहीं न कहीं वोटर का मन बदलता जरुर दिखाई देने लगा है और एक परिवार में ही सब कुछ की बात भी खूब चर्चाओं में है व आम वोटर के मन पर इसका प्रभाव पड़ता दिखने लगा है। कांग्रेस से आए और आप के कहलाए सांसद डा. राज कुमार के लिए भले ही बेटे के लिए टिकट लेना आसान हो गया था, मगर अभी भी कई कार्यकर्ताओं एवं नेताओं को यह बात हजम हो रही तथा वह अंदरखाते खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। लेकिन उनके पास कोई विकल्प न होने के कारण उन्हें चुप्पी साधने को विवश होना पड़ रहा है। क्योंकि, वह जानते हैं कि मौजूदा समय में पार्टी से बगावत भारी पड़ सकती है, पार्टी के पास पूर्ण बहुमत से भी अधिक बहुमत होने के कारण पार्टी को किसी की परवाह नहीं तथा ऐसे में ऐसे में वह सरकार से वैर मोल लेकर प्रशासनिक अधिकारियों में बनी बनाई पैंठ गंवाना नहीं चाहेंगे।
कांग्रेस एवं भाजपा के पक्ष में चुनाव प्रचार में जुटे कई नेताओं के लिए जीत या हार मायने नहीं रखती लेकिन वह अपने प्रत्याशी के लिए प्रचार करके कितने वोट जुटा पाए इस अस्तित्व की लड़ाई उनके लिए अधिक मायने रख रही है कि उनका जनाधार कितना है और 2027 में उन्हें कितना फायदा हो सकता है। क्योंकि, कईयों के लिए यहां लगाया गया जोर उनके लिए 2027 में टिकट की दावेदारी ठोकने के काम आने वाला है। सूत्रों की माने तो चर्चा तो यह भी है कि पिछले विधानसभा एवं हाल ही में हुए लोकसभा चुनाव में कई नेता तो ऐसे थे, जिनके लिए वह चुनाव भी फ्रैंडली मैच थे और यह भी फ्रैंडली मैच ही है लेकिन कई नेता इस फ्रैंडली मैच से बाहर निकल हार-जीत का गणित बदलने की क्षमता के तहत काम करने में जुट गए हैं तथा कई तो ऐसे हैं जो प्रचार एक पार्टी के लिए करते हैं और शाम को दूसरे खेमे में जाकर सारी रिपोर्ट एवं राज उगल देते हैं तथा अंदरखाते कईयों ने तो जेब भी खूब गर्म कर रखी है कि जीत तो आपकी ही पक्की करेंगे।
अब ये पार्टी का क्या है, पार्टियां तो अपने ही हाथ की कठपुतली हैं दिल्ली वालों को क्या पता कि यहां क्या खिचड़ी पक रही है और क्या पकाया जाना था। इतना ही नहीं कई तो इस आस में भी सत्तापक्ष के साथ हो लिए हैं कि 2027 में करनी तो वापसी ही है तो फिर इसे जिता दो या उसे क्या फर्क पड़ता है तो फिर मौके के सरताज को नाराज क्यों करना। इसलिए लाडले के लिए सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों के ही अधिकतर नेता एवं कार्यकर्ता उतावले दिख रहे हैं। इसीलिए तो शायद कहा गया है कि जिसकी कोठी दाणे उसदे कमले वी सियाणे। अब किसकी कोठी में दाणे हैं और कौन कितना सियाणा है यह किसी से छिपा नहीं है तथा नतीजे सभी के सामने हैं और आगे के भी पहले तो स्पष्ट थे, जो अब धुंधले से लग रहे हैं। खैर हमें क्या, हलका हलका वासियों का, जो होगा सामने आ ही जाएगा और जो जैसा करेगा उसका भी आगे आ ही जाएगा कि किसने किसकी कैसे मदद की। कितने में की और किसके माध्यम से की। हमें दें आज्ञा। जय राम जी की।