राजनीतिक गलियारों में एक समय था कि जो व्यक्ति जिस पार्टी के साथ जुड़ता था उसी में अपना जीवन गुजार देता था, लेकिन अब जब तक कोई नेता 2-4 बार पार्टी बदल न लें और बदलने के बाद फिर से पहले वाली पार्टी में न आए जाए उसका सम्मान और कद दोनों नहीं बढ़ता। इसी वाक्य को सिद्ध करने के लिए नेताओं में पार्टी बदलने की होड़ सी रहती है तथा ऐसे में पार्टियों एवं नेताओं के साथ जुड़े लोग एवं कार्यकर्ताओं के समक्ष असमंजस की स्थित बनी रहती है कि आखिर वह किसके लिए काम कर रहे हैं या करें। क्योंकि न तो पार्टियों का स्टैंड है और न ही नेताओं का। तो ऐसे में सवाल है कि आम जनता या कार्यकर्ता आखिर करे तो क्या करे। खैर यह तो विषय ऐसा है कि एक बार इसे छेड़ लिया जाए तो इसका अंत असंभव सा दिखाई पड़ता है।
चलिए बात करते हैं चब्बेवाल में होने जा रहे विधानसभा उपचुनाव की। वहां जो राजनीतिक परिवेष चल रहा है उससे तो फ्रैंडली मैच का आभार हो रहा है। क्योंकि, सत्ता पक्ष को पता है कि सरकार अपनी है तो ऐसे में जीत को सुनिश्चित है तथा विपक्ष में बैठे नेताओं को भी इस बात का आभार है कि जीत कठिन होने के चलते आखिर जोर लगाया भी जाए तो क्यों और किसके लिए। नेताओं को एक तरफ जहां 2027 दिख रही है वहीं उन्हें अपनी रीजनीतिक पकड़ के लिए सत्तापक्ष के साथ की जरुरत भी महसूस हो रही है ताकि आज वह उनका साथ देंगे तो कल को कम से कम एक सीट पर वह उनका साथ दे ही देंगे फिर भले ही उसमें आज की सत्ता पार्टी की हार ही शामिल क्यों न हो।
लालाजी स्टैलर की चुटकी
चर्चाओं की बात करें तो चब्बेवाल सीट से तत्कालीन विधायक डा. राज कुमार के आप में जाने के बाद उन्हें लोकसभा सीट के लिए टिकट दिया गया और उन्होंने 44111 हजार की लीड से चुनाव जीता और इस जीत में हलका चब्बेवाल वासियों ने उन्हें बड़ी लीड देते हुए 44933 वोट दिए जोकि इस जीत में बड़ा योगदान रहा। सांसद बनने के बाद यह सीट खाली हो गई और उपचुनाव में उनके भाई डा. जतिंदर को टिकट दिए जाने की चर्चाओं ने जोर पकड़ लिया। लेकिन पिता डा. राज कुमार को लोकसभा चुनाव में सक्रिय हुए उनके बेटे डा. ईशांक को धीरे-धीरे से आगे किया जाने लगा और डा. जतिंदर जोकि पहले काफी सक्रिय दिखते थे की गति धीमी पड़ने लगी। डा. जतिंदर का नाम कहीं गुम होता दिखाई दिया और डा. ईशांक के नाम की चर्चाएं तेज होने लगीं। इसे पुत्र प्रेम की संज्ञा भी दी जाने लगी तथा पारिवारिक गतिरोध को दूर करते हुए डा. परिवार द्वारा उनके नाम पर सहमति होने के बाद डा. ईशांक को चुनाव मैदान में उतारा गया। यह पहले से ही तय था कि डा. राज कुमार की जीत के बाद उन्हीं के परिवार के किसी सदस्य को मैदान में उतारा जा सकता है, जबकि हरमिंदर सिंह संधू द्वारा टिकट की दावेदारी ठोकी जा रही थी और उन्हें उम्मीद थी कि पार्टी उनके साथ वफा करते हुए लोकसभा में न सही पर उपचुनाव में भाग्य आजमाने का मौका जरुर देगी। इसी के चलते वह लंबे समय से हलके में सक्रिय थे व पार्टी ने उन्हें प्रदेश उपाध्यक्ष की जिम्मेदापी सौंपी हुई थी। लोकसभा चुनाव में मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान ने उन्हें डा. राज के साथ चलने को मना लिया था और भविष्य के लिए कोई आश्वासन दिया ही होगा। मगर, संधू की उम्मीदों पर भी पानी फिर गया और उपचुनाव में टिकट डा. राज के परिवार में चली गई।दूसरी तरफ कांग्रेस की बात करें तो कुलविंदर सिंह रसूलपुर द्वारा लंबे समय से हलके में सेवा की जा रही है तथा कोरोना काल में उनके द्वारा की गई सेवा के चलते लोगों के दिलों में उनके लिए एक विशेष स्थान रहा है। इसके अलावा हलका वासियों के दुख-सुख में डा. राज ही की तरह खड़े होने वाले रसूलपुर को पूरी उम्मीद थी कि पार्टी हाईकमान उनके पक्ष में फैसला सुनाएगी। मगर, उनकी आशाओं पर उस समय पानी फिरता हुआ नज़र आया जब पूर्व मंत्री व हाल ही में भाजपा से कांग्रेस में वापसी करने वाले सुन्दर शाम अरोड़ा ने जिला बार एसोसिएशन के अध्यक्ष और बसपा से लोकसभा चुनाव लड़ाने वाले एडवोकेट रणजीत सिंह को कांग्रेस में शामिल करवाकर उन्हें चब्बेवाल से उम्मीदवार घोषित करवा दिया, हालांकि इसे पार्टी हाईकमान का फरमान बताया जा रहा है, लेकिन इसकी नींव कहीं न कहीं होशियारपुर में ही रखी गई होगी। जिसके चलते कार्यकर्ताओं एवं नेताओं में असीब सी स्थिति बनी हई है कि आखिर पार्टी में हो क्या रहा है।
एडवोकेट रणजीत सिंह को लोकसभा चुनाव में 48214 वोट मिले थे और चब्बेवाल से 9523 वोट मिले थे जोकि डा. राज से 5 गुणा कम हैं तथा ऐसे में उपचुनाव में कांग्रेस कौन सा मुकाबला लेकर चुनाव मैदान में उतरी है इसका जवाब तो पार्टी हाईकमांड या आला नेता ही दे सकते हैं, लेकिन फिलहाल जीत के दावों का दौर जारी है। भाजपा की बात करें तो इसमें भले ही इस सीट पर जीत से दूर-दूर तक कोई नाता न रहा हो, लेकिन इस सीट से चाव लड़ने वालों की संख्या 6-7 चाहवान उम्मीदवारों की बताई जा रही थी तथा 4-5 नामों की चर्चा तो जोरों से थी। जिनमें डा. दिलबाग राय, बीबी महिंदर कौर जोश, अवतार सिंह कंग, डा. परमिंदर सूद, अमरजीत पिंदा का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा था। पार्टी सूत्रों से पता चला है कि इनमें डा. दिलबाग राय एवं बीबी महिंदर कौर जोश ने चुनाव लड़ने से किनारा करते हुए पार्टी को अपने इरादे बता दिए थे तथा इसके बाद उक्त तीन नामों की चर्चाओं ने जोर पकड़ लिया। परन्तु भाजपा ने इस सीट पर अपना वर्चस्व बढ़ाते हुए अकाली नेता सोहन सिंह ठंडल को पार्टी में शामिल करने के लिए मनाते हुए उन्हें चुनाव मैदान में उतारने का मन बनाया। उन्होंने भी अकाली दल की मौजूदा स्थिति को देखते हुए भाजपा के साथ जाने में ही भलाई समझी और उपचुनाव लड़ने का मन बना लिया।
श्री ठंडल 4 बार विधायक रह चुके हैं और दो बार मंत्री एवं एक बार सीपीएस की जिम्मेदारी भी निभा चुके हैं तथा अकाली दल की मौजूदा स्थिति एवं भाजपा से पुरानी सांझ का हवाला देते हुए उन्होंने शामिल होने का कारण बताया और कहा कि समय आया तो फिर से एक हो जाएंगे, लेकिन अभी जो स्थिति है उसमें लोग भ्रष्टाचार एवं धक्केशाही से तंग है तथा इसी के चलते उन्होंने भाजपा का साथ देने का निर्णय लिया है। जहां तक अकाली दल का सवाल है, उसमें चल रहे घमासान के कारण पार्टी ने उपचुनाव में भाग न लेने का फैसला लिया है तथा ऐसे में चुनाव लड़ने का मन बनाए बैठे ठंडल के पास किसी अन्य पार्टी में जाने का ही विकल्प था व उन्होंने भाजपा का दामन थाम लिया। भाजपा की केन्द्र में सरकार भी है तथा ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि हो सकता है कि भाजपा उन्हें केन्द्र में कोई पद दे दे या पार्टी की कोई बड़ी जिम्मेदारी देकर नवाज दे। रही बात उपचुनाव में जीत हार की तो लोकसभा चुनाव में उन्हें 91789 वोट मिले थे और हलका चब्बेवाल से उन्हें 11935 वोटों पर ही संतुष्टि करनी पड़ी थी। ये मत भी डा. राज से करीब 4 गुणा कम थे। ठंडल के राजनीतिक कद के हिसाब से उन्हें पार्टी में शामिल करवाने के लिए गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री विजय रुपानी एवं प्रदेश प्रधान श्वेत मलिक होशियारपुर पहुंचे तथा उन्होंने भी जीत की उम्मीद जाहिर की। राजनीतिक माहिरों की मानें तो यह तो अच्छी बात है कि अपनी पुरानी साथी रही अकाली दल पार्टी के एक नेता को भाजपा ने अपने साथ चला लिया, लेकिन सवाल है कि भाजपा के पास अपने कार्यकर्ता होते हुए उसने दूसरी पार्टी के नेता पर भरोसा क्यों जताया तथा इसे एक रिस्क की तरह माना जा सकता है और अब यह तो समय ही बताएगा कि चब्बेवाल की जनता एक परिवार पर विश्वास जताएगी या फिर लंबे समय तक हलके की सेवा करने वाले ठंडल पर या फिर जनता का किसी अन्य पार्टी को मौका देने का मन है। लेकिन जो भी हो इस चुनाव में सत्ताधारियों के पास अपना तामझाम है और विपक्ष के सामने नाको चने चबाने जैसी स्थिति, इसीलिए शायद कई नेताओं ने इस चुनाव से किनारा करना ही बेहतर समझा।
आप सोच रहे होंगे कि राजनीतिक आंकड़ों में फ्रैंडली मैच की बात कैसे, तो चर्चाओं में यह बात ऐसे उभर कर सामने आ रही है कि मौजूदा समय में डा. राज का सामना करने का साहस किसी में नहीं है तथा कई नेता 2027 और डा. राज से अपने पुराने संबंधों को देखते हुए उनके बेटे को जिताकर अपना दोस्ताना हक अदा करने का काम कर रहे हैं ताकि जब 2027 आए तो डा. राज कहीं न कहीं उनके एहसान को मोड़ने के लिए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से मदद कर सकें भले ही उन्हें अपनी ही पार्टी के नेता के खिलाफ ही क्यों न चलना पड़े, लेकिन दोस्ती निभाना भी एक कला है या यूं कहें कि राजनीतिक में सिक्का चमकाने के लिए कई दांव पेंच खेलने पड़ते हैं और फ्रैंडली मैच भी इसी कड़ी का एक हिस्सा है। इसीलिए तो मैच को एकतरफा करने के लिए जो उम्मीदवार खड़े किए जा रहे हैं उन्हें इस प्रकार चुनाव मैदान में उतारा जा रहा है, जिससे कार्यकर्ताओं का मनोबल क्षीण हो और वह खुले मन से पार्टी का साथ न देकर विपक्ष का पाला मजबूत करने का काम करें। इसी का नाम तो राजनीति है और राजनीति में सब जायज ही जायज है। पुरानी बातें अब कहां। क्योंकि जिसकी लाठी उसकी भैंस कहावत तो सभी ने बचपन में ही पढ़ ली थी और राजनीतिक गलियारों में तो यह पहले दिन से ही लागू हो जाती है। वैसे भी सत्ता की भूख और ताकत का नशा कम लोग ही पचा पाते हैं तथा ताकत घर में ही रहे इसके लिए ही शायद कई पार्टियों का कल्चर परिवारों तक ही सीमित रह चुका है और उनका भविष्य सभी के सामने है। खैर, पंजाब की चारों सीटों में सबसे हाट सीट चब्बेवाल की मानी जा रही है तथा इस सीट पर जीत तो सत्तापक्ष की ही मानी जा रही है, लेकिन बात मार्जिन की है कि इस बार जीत किसने बड़े आंकड़े के साथ होगी।